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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशस्तम्भः । ४९७ जंतुरक्खणाणेसु धम्मावगरणेसु संलग्गंतं अणुमोएमि कल्लाणेणं अभिनंदेमि ॥” फिर परमेष्टिमंत्र पढके। “॥ जं मए इथ्थ भवे मणेणं वायाए कारणं दुदें चिंतिअं दुटुं भासिअंतुष्टुं कयं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥" ___ “॥ जं मए इथ्थ भवे मणेणं वायाए कारणं सुट्ट चिंतिअं सुटु भासि सुट्ट कयं तं अणुमोएमि कल्लाणेणं अभिनंदमि ॥" यहां पहिला समारोपितसम्यक्त्व व्रतको भी, फिर सम्यक्त्त्व व्रतारोप करना. और जिसको पहिले सम्यक्त्व व्रतारोप न करा होवे, तिसको भी अंतकालमें सम्यक्त्व व्रतारोप करना योग्य है.। जिसको पहिलो व्रतारोप करा होवे, तिसको इस अंतसमयमें एकसौचौवीस अतिचारोंकी आलोचना करनी.। वे अतिचार आवश्यकादि सूत्रोंसें जान लेने. । तदपीछे आलोचनाविधि करना, सो प्रायश्चित्तविधिसे जानना.। तदपीछे गुरु सर्व संघसहित वासअक्षतादि ग्लानके शिरमें निक्षेप करे. ॥ इत्यंतसंस्कारे आराधनाविधिः॥ तदपीछे ग्लान (रोगी-बीमार)क्षमाश्रमण परमेष्टिमंत्र पाठपूर्वक कहें ॥ आयरियउवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे अ॥ जे मे कया कसाया सवे तिविहेण खामेमि ॥१॥ सवस्स समणसंघस्स भगवओ अंजलिं करिय सीसे ॥ स, खमावइत्ता खमामि सवस्स अहयंपि ॥२॥ सव्वस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहियनियचित्तो॥ सव्वं खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अहयंपि॥३॥ "॥भयवं जं मए चउगइगएणं देवा तिरिआमणुस्सा नेरइआ चउकसाओवगएणं पंचिंदिअवसट्रेणं इहम्मि भवे अन्नेसु वा भवगहणेसु मणेणं वायाए कारणं दुमिआ संताविआ अभिताइया For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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