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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३८) इसवास्ते आत्मारामजी भी जोधामल्ल आदिके साथ ढूंढक साधुओंके पास जाने लगे और ढूंढकमतको मानने लगे. "जवारमल्ल' नामक ओसवालके पाससे ढूंढकमतका सामायिक पडिक्कमणा सीखा और नवतत्व छवीसद्वार आदि बोल विचारोंको भी याद किये. विक्रम संवत् १९१० में "गंगाराम-जीवणराम" ढूंढकमतके दो साधुओंने जीरामें चौमासा किया. तब जवारमल्ल दु. ग्गडके, और पूर्वोक्त साधुओंके उपदेशसे "श्रीआत्मारामजी” इस असार संसारसे विरक्त हुए; और साधु होनेका निश्चय किया. इस बातकी खबर इनकी माता “रूपादेवी" जो कि लेहरा गाममें रहती थी उसको हुई तब वो अपने पुत्रके पास आके बहुत रुदन करके पुत्रको साधु होनेके वास्ते मना करने लगी, परंतु श्रीआत्मारामजीने माताजीको शांत करके मीठे बचनोंसे कहा कि, " हे माताजी ! आप मुजे खुशीसे रजा दीजिये, जिससे मेरा साधुपणा आपके आशीर्वादसें पूर्ण होवे.” तब माताजीने गद्गद् स्वरसे कहा कि, “हे पुत्र ! तेरे पिताजी तुजको जोधामल्लजीको सोंप गयेहैं, इसवास्ते अपने धर्मपिता जोधामल्लजीकी आज्ञा तुजको लेनी चाहिये, और जो कुछ वे फरमावे, वो तुजको करना चाहिये. मेरे तरफसे वे मालिक है." माताजीका ऐसा कथन सुनके श्रीआत्मारामजीने बडी खुशीसे अपने धर्मापता जोधामल्लसे आज्ञा मांगी. तब जोधामल्लने कहा कि, " तू मेरा धर्मपुत्रहै, मैने तुजको बाल्यावस्थासे पाला है,इसवास्ते मैं अपने सारे धनका तीसरा हिस्सा तेरे नामका सरकारमें लिखादेता हुँ, और तेरा विवाह भी बडी धामधूमसे मैं आप करूंगा. किसीके बहकानेसे मत भूल.'' यह कहकर जोधामल्ल श्रीआत्मारामजीको प्यारसे छातीके साथ लगाकर बहुत रोया, तब श्रीआत्मारामजी अपने धर्मपिता जोधामल्लके सामने कुछ भी जवाब न दे सके; क्योंकि श्रीआत्मारामजी बहुत नरम दिलके, और विनयवान् थे. ववाए-वेसमणोववाए-वेलंधरोववाए, त्रयोदश वर्ष पर्यायवालेको उट्ठाणसुए-समुठ्ठाणसुए-देविंदोववाएनागपरियावणियाए, चउदह वर्ष पर्यायवालेको सुमिणभावणा, पंदरह वर्प पर्यायवालेको चारणभावणा, सोलां वर्ष पर्यायवालेको तेअनिसग्ग, सप्तदश वर्ष पर्यायवालेको आसीविसभावणा, अठारह वर्ष पर्यायवालेको दिठ्ठीविशभावणा, ऐकोनवीस वर्ष पर्यायवालेको दिठिवाऐ, बीश वर्ष पर्यायवालेको सर्वश्रुत, पढाना कल्पताहै." यदि जो लौंका व्यवहार सूत्रको मान्य करता तो, स्ववचन व्याघातरूप दूषणसे वजोपहत तुल्य होजाता. क्योंकि, वो आप बिना साधु हुयेही शास्त्र पढतारहा, और भूणा वगैरहको भी पढाया. इसी सबबसे अद्यतनकालमें भी कितनेक जैनाभास गृहस्थीयोंको पूर्वोक्त शास्त्र पढाते हैं. परंतु यह आश्चर्य है कि, लौंकेने तो प्रथमसेही व्यवहार सूत्रको जलांजलि देदी थी. इस वास्ते वो तो पृथग्रही रहो ! परंतु जो लोक व्यवहारसूत्रको मानते हैं, और फिर गृहस्थीयोंको पूर्वोक्त पाठ लोपके शास्त्र पढाते हैं, उनकी कितनी भारी बेसमझ है ! इस बातकी परीक्षा करनी हम उनकोही सपुर्द करते हैं.अफशोश !! लौँकेने जो(३१)शास्त्र मान्य रसे उनमें भी,जहां जहां जिन प्रतिमाका अधिकार है, तहां तहां मनःकल्पित अर्थ कहने लग गया. इसी तरह कितनेही लोगोंको जैनमार्गसें भ्रष्ट किया. विक्रम संवत् १६६८ में रूपजी नामा भणेका शिष्य हुआ, उसका शिष्य संवत् १६०६ में वरसिंह हुआ, तिसका शिष्य संवत् १६४९ में माघ सुदि त्रयोदशी गुरुवारके रोज पहर दिन चढे जसवंत हुआ, उसके पीछे बजरंगजी हुआ (जो संबत् १७०९में लंपकाचार्य कहाया.)बजरंगजी की दीक्षा पीछे मुरतका वासी वोहरा वीरजीकी बेटी फूलांबाईके गोदपुत्र लदजीने दीक्षा ली. दीक्षा लेनेके पीछे जब दो वर्ष हुऐ, तब दशवैकालिक शास्त्रका टबा (भाषारूप अर्थ) पटा तब अपने गुरूको कहने लगा कि, “तुम साधुके आचारसे भ्रष्ट हो;" इत्यादि कहनेसे गुरूके साथ लडाई हुई. तब लुपकमत, और लौंकेमतके अपने गुरूको त्याग दिया. और थोभणरिष-सखीयोजीको बहकाके अपने साथ लेके, अनुमान संवत् १७०९ में स्वयमेव कल्पित वेष धारण करके साधु बनगया, और मुखपर कपडा For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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