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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४४१ अष्टाविंशस्तम्भः। अमुगस्स सुओ अमुगो सहो गिण्हेइ इत्थ गिहिधम्मं॥ अमुगस्स अमुगकंता अमुगा वा साविआ चेव ॥४६॥ जुझंमि गोगहम्मि अ चेइअगुरुसाहुसंघउवसग्गे॥ तह दुनिग्गहे चिअ जीवविघाए न मह दोसो॥४७॥ जणदेसरक्खणत्थं हणणे मह सीहवग्यसत्तूणं ॥ नहु दोसो जलपिअणे गलणं अन्नत्थ जहसत्ती ॥४८॥ इत्येव पमाएणं घुरुवयणेणं इमं तवं कुवे ॥ अप्पबहुभंगएणं तेणं जायइ मह विसोही ॥४९॥ भाषार्थः-अमुक जिनेंद्रको नमस्कार करके, अमुक श्राविका, वा अमुक श्रावक अमुक गुरुके पासे, गृहस्थधर्मको अंगीकार करता है.॥१॥ श्री अरिहंतको वर्जके अन्य देवको नमस्कार न करूं, जिनमतके सुसाधुको छोडके अन्य लिंगिको धर्मार्थे नमस्कार न करूं. । २ । जिन वचन स्याद्वादयुक्त जो सप्त वा नव तत्त्व तिनको सत्य करी जानता हूं, मिथ्याशास्त्रोंके श्रवण पठन लिखनेका मुझको नियम होवे. । ३ । परतीर्थियांको प्रणाम, उद्भावन, स्तवन, भक्ति, राग, सत्कार, सन्मान, दान, विनय, वर्जु-न करूं. । ४ । धर्मकेवास्ते अन्य तीर्थमें तप, दान, वान, होमादिक नही करूं. तिनके उचित करने योग्य कर्ममें जयणा मुझको होवे. । ५। तीन, वा पांच, वा सातवार यथाशक्तिसें चैत्यवंदन करूं; एक, वा दो वा तीन वार, प्रतिदिन सुसाधुको नमस्कार करूं, और तिसकी सेवा करूं. ।६। एक, वा दो, वा तीनवार प्रतिदिन जिनपूजा करूं; और पर्वदिनमें स्नानादि अधिक अधिकतर पूजा करूं. इतिसम्यक्त्वम् । कुलाचार विवाहादि कृत्यमें जीववध होते जयणा करूं । ७। विना प्रयोजन एकेंद्रियका भी बध न करूं, प्रयोजनके हुए जयणा करूं । इतिप्रथमवतम्। For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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