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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टाविंशस्तम्भः । ४३५ वासक्षेप, क्षमाश्रमणआदि, पूर्ववत् जानने. परंतु सर्वत्र सम्यक्त्व सामायिकके स्थान में देशविरतिसामायिकका नाम ग्रहण करना । सर्वत्र तैसें करके फिर दूसरी नंदि दंडकोच्चारणसें प्रथम करनी । व्रतोच्चार कालमें नमस्कार तीन पाठानंतर, हाथमें ग्रहण करे परिग्रह परिमाण टिप्पनक ( फहरिस्त - नोंध ) ऐसे श्रावकको, गुरु, देशविरतिसामायिकदंडक उच्चरावे. ॥ सयथा ॥ 66 “ ॥ अहणं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगं पाणाइवायं संकप्पओ बीइंदिआइजीवनिकायनिग्गहनियद्विरूवं निरावराहं पच्चक्खामि जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ "" यह पाठ तीनवार कहना ॥ १ ॥ इसीतरें सर्व व्रतोंमें तीन २ वार पाठ पढना. ॥ “॥ अहणं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगं मुसावायं जीहाच्छेयाइनिग्गहऊअं कन्नागोभूमिनिक्खेवावहारकूडसक्खाइपंचविहं दक्खिन्नाइ अविसए अहागहिअभंगएणं पञ्चक्खामि जावजीवा दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं० ॥ २ ॥ " “ ॥ अहणं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगं अदिन्नादाणं खत्तख - णणाइ चोर कारकरं रायनिग्गहकरं सच्चित्ताचित्तवत्थुविसयं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं० ॥ ३ ॥ 66 77 66 ॥ अहणं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगमेहुणं उरालियवेउवियभेअं अहागहिअभंगएणं तत्थ दुविहं तिविहेणं दिवं एगविहं तिविहेणं तेरिच्छं एगविहमेगविहेणं माणुस्सं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं० ॥ ४ ॥ 77 For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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