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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 66 ४२४ तत्त्वनिर्णयप्रासाद ऐसें नियम देके यह गाथा उच्चारण करवावे ॥ अरिहंतो मह देवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो ॥ जिणपणत्तं तत्तं इअ समत्तं मए गहिअं ॥ १ ॥ "" Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सुगमा ॥ तदनंतर अरिहंतको वर्जके अन्यदेवको नमस्कार करनेका, जिनयति महाव्रतधारी शुद्ध प्ररूपकको वर्जके अन्य यति विप्रादिकोंको भावर्से अर्थात् मोक्षलाभ जानके वंदना करनेका, और जिनोक्त सप्त तत्त्वको वर्जके + तत्त्वांतर की श्रद्धा करनेका, नियम करना. अन्य देव और अन्य लिंगि विप्रादिकोंको नमस्कार और दान, लोकव्यवहारकेवास्ते करना और अन्यमतके शास्त्रका श्रवण पठन भी, ऐसेंही जानना । तदपीछे गुरु सम्यक्त्वकी देशना करे. । सा यथा ॥ मानुष्यमार्यदेशश्च जातिः सर्वाक्षपाटवम् ॥ आयुश्च प्राप्यते तत्र कथंचित्कर्मलाघवात् ॥ १ ॥ प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा कथकः श्रवणेष्वपि ॥ तत्त्वनिश्चयरूपं तद्बोधिरत्नं सुदुर्लभम् ॥ २ ॥ गाथा ॥ कुसमयसुईण महणं सम्मत्तं जस्स सुहिअं हियए ॥ तस्स जगुज्जोयकरं नाणं चरणं च भवमहणं ॥ १ ॥ अर्थः- मनुष्यजन्म १, आर्यदेश २, उत्तमजाति ३, सर्वइंद्र संपूर्ण ४, आयु: ५, येह कथंचित् कर्मकी लाघवतासें प्राप्त होवे है. । पुण्योदयसें पूर्वोक्त प्राप्ति हुये भी श्रद्धा ९, शुद्ध प्ररूपकका जोग २, और सुणनेसें तत्त्वनिश्चयरूप बोधिरत्न सम्यक्त्व ३, येह अतिही दुर्लभ हैं. ॥ कुत्सितसमयएकांतवादियोंके शास्त्र तिनकी श्रुतियोंको मथन करनेवाला सम्यक्त्व, + पुण्य और पापको आश्रवतत्त्वके अंतर्गत गिणनेसें सप्त तत्त्व, अन्यथा नव तत्व जाणने जिनका स्वरूप जैन तत्त्वादर्शके पचम परिच्छेद में है. For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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