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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्त्वनिर्णयप्रासादअर्थः-सम्यक्त्वके लाभ हुए, नरकतिर्यंचगतिके द्वार ढांके है, और देवता मनुष्य मोक्षके सुख स्वाधीन है. । तदपीछे गुरुकी आज्ञासें श्राद्धजन, नालिकेर अक्षत सुपारी करके पूर्ण हस्त करके परमेष्ठिमंत्र पढता हुआ समवसरणको तीन प्रदक्षिणा करे. । तदपीछे गुरुके पास आयकर, गुरु श्राद्ध दोनोही इर्यापथिकीपडिक्कमे । पीछे आसन उपर बैठे गुरुके आगे, श्राद्धजन ऐसें कहे ॥ " इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्झाए निसीहिआए मच्छएण वंदामि ॥भगवन् इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं सम्मत्ताइतिगारोवणिअंनंदिकवावणियं वासक्वेवं करेह॥" तदपीछे गुरु, वासांको, सूरिमंत्रसें, वा, गणिविद्या अर्थात् वर्द्धमान वियासें, अभिमंत्रके, परमेष्टि और कामधेनु दोनों मुद्राकरके, पूर्वाभिमुख खडा होके, वामे पासे रहे गावकके शिरमें निक्षेप करे. । तिसके मस्तकके उपर हाथ रखके, गणधर विद्यासे रक्षा करे. । तदपीछे गुरु आसनउपर बैठ जावे, और श्राद्ध पूर्ववत् समवसरणको प्रदक्षिणा करके, गुरु आगे क्षमा श्रमण देके कहे. “ ॥ इच्छाकारेण तब्भे अम्हं सम्सत्ताइतिगारोवणिअं चेइआई वंदावहे ॥” सदपीछे गुरु और श्रावक दोनो, चार वर्द्धमानस्तुतियों करके चैत्यवंदन करें. । जे छंदसें वर्द्धमान होवे, और चरम जिनकी प्रथम स्तुतिवालीयां होवे, तिनको वर्द्धमानस्तुति कहते हैं. । पीछे चारस्तुतिके अंतमें " श्रीशांतिदेवाराधनार्थ करोमि काउसग्गं वंदणवत्तियाण पूअणवत्तियाण सक्कारव० स० जावअप्पाणं वोसिरामि" सत्ताइस उत्स्वासप्रमाण अर्थात् ‘सागरवरगंभीरा' तक चतुर्विंशतिस्तव चिंतवन करे.। तदपीछे 'नमो अरिहंताणं' कहके पारे । पारके-' नमोर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः' यह कहके स्तुति पडे। For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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