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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१२ तत्त्वनिर्णयप्रासादजगत्में जो कर्म निंदनीक होवे तिसमें प्रवृत्त नही होनेवाला; । अपनी आमदनीअनुसार खर्च करनेवाला, अपने धनके अनुसार वेष रखनेवाला; बुद्धिके आठ गुणोंकरी संयुक्त निरंतर धर्मोपदेश श्रवण करनेवाला; अजीर्णमें भोजनका त्यागी, वखतसर साम्यतासें भोजन करनेवाला, एक दूसरेकी हानी न करे इस रीतिसें धर्म अर्थ कामको सेवनेवाला;। यथायोग्य अतिथि साधु और दीनकी प्रतिपत्ति करनेवाला, सदा आप्रहरहित, गुणोंका पक्षपाती;। देशकालविरुद्धचर्या त्यागनेवाला, । कोइ भी कार्य करनेमें अपना बलाबल जाननेवाला, जे पांच महाव्रतमें स्थित होवे और ज्ञानवृद्ध होवे तिनकी पूजा भक्ति करनेवाला, पोषणेयोग्यका पोषण करनेवाला, । दीर्घदर्शी, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, लोकवल्लभ, लज्जालु, दयालु, सौम्य, परोपकार करणेमें समर्थ, काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, हर्ष, इन षट् ६ अंतरंग वैरीयोंके त्याग करनेमें तत्पर, पांच इंद्रियोंके समूहको वश करनेवाला, ऐसा पुरुष गृहस्थधर्मके वास्ते कल्पता है ॥ १०॥ - ऐसे पुरुषको व्रतारोप करिये हैं । प्रायःकरके व्रतारोपमें गुरु शिष्यके वचन प्राकृत भाषामें होते हैं, क्यों कि गर्भाधानादि विवाहपर्यंत संस्कारोंमें प्रायः करके गुरुकेही वचन हैं, शिष्यके नहीं और गुरु प्रायः शास्त्रविद होते हैं, इसवास्ते संस्कृतही बोलते हैं. । इहां व्रतारोपमें बाल, स्त्री, मूर्ख शिष्योंका क्षमाश्रवणदानपूर्वक वचनाधिकार है, तिसबास्ते तिनको संस्कृत उच्चार असामर्थ्य होनसें प्राकृत वाक्य है. तिसकी साहचर्यतासें तिसके प्रबोधवास्ते, गुरुके वचन भी, प्राकृतही यतउक्तमागमे ॥ “ ॥ मुत्तूण दिहिवायं कालियउक्वालियंगसिद्धतं ॥ __ थीबालवायणच्छंपाइयमुइयं जिणवरेहिं ॥१॥" अर्थः-दृष्टिवादको वर्जके कालिक उत्कालिक अंगसिद्धांतको बीबालकोंके वाचनार्थ जिनवरोंने प्राकृत कथन करे है.॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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