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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( २९ ) अर्थात् बड़े बड़े सूत्र प्रमुख द्वादशांगीपर्यंत कंठान रखते थे, तिस समयमें भी, यद्यपि देव नागरी आदि लिपियें विद्यमान थी, तो भी, ग्रंथोंको लिखके रखने की बहुत जरूरत नहीं पडती थी. क्योंकि, वो कालमानही तैसा था. पीछे, कालके प्रभावसे जैसे जैसें मनुष्यों की स्मरणशक्ति घटती गई, तैसें तैसें ज्ञानको न्यूनता होने लगो जिससे किसी समयमें कितनेक विद्वानोंने इकट्ठे होके, ग्रंथ लिखने लिखवाने प्रारंभ किये. इस रीतिके प्रचलित होनेके बाद उत्तउस समयके श्रेष्ठ पुरुषोंने, लिखारीयोंके पाससे अनेक ग्रंथ लिखवायके, उनके बडेबडे ज्ञानभंडार (पुस्तकालय) कराये; जो, अद्यापि प्रायः पादनादि शहरों में देखने में आते हैं. यद्यपि पूर्वज पुरुषोंने, ऐसे अनेक भंडार करके श्रुतज्ञानके मुख्य साधन पुस्तकोंकी रक्षा करी है, तथापि, कितनेही अपूर्व अपूर्वतर पुस्तक, पढने पढानेवाले, और समझने समझानेवाले के अभावसे, नष्ट होगये. और कितनेक पुस्तक तो, जैनियोंके प्रमादसे नष्ट होगये, अब जो विद्यमान है, उनमें भी न्यूनता होनेका संभव हो रहा है। क्योंकि, न तो, कोई जैनीयों में पठन पाठनका 'कालेज' (वृर जैनशाला ) प्रशाख साधन है, और न मातापिता ध्यान देकर पढाते हैं. केवल सांसारिक विद्याके ऊपरही जोर देते हैं, परंतु यह उनकी बड़ी भारी भूल है. यदि सांसारिक विद्याके साथही, धार्मिक विद्या भी पढाई जावे तो, थोडेही प्रयाससे ज्ञानवृद्धि होवे, और धर्मकी भी वृद्धि होवे, तथा अपने संतानोंका परलोक भी सुधर जावे. परंतु, मोदक खाने छोडके ऐसा काम कौन करे ? अफशोस !!! मैनियोंका उदय, कैसे होवेगा? हां! आजकाल कई लोग नवीन पुस्तक लिखाके भंडार कराते हैं, परंतु वो भी, मक्षिकास्थाने मक्षिकावत् जैसा लिखारियोंने लिख दिया, वैसाही लेके स्थापन करदिया; शुद्ध कौन करे ? हाय ! जैनीयोंमें प्रपादने कैसा घर करदिया ! जो, ज्ञान पढने केतरफ ख्यालही नही होने देता है !!! ऐसे ज्ञानके अभ्यासके न होनेसें लोगोंमें संस्कृत प्राकृतका बोध घट गया, तो अब इस समयमें संस्कृत प्राकृतके बोधरहित लोगोको बोध करानेकेवास्ते देशीयभाषामें ग्रंथ रचना करके, अपनी शक्तिके अनुसार प्रत्येक ज्ञाता पुरुषको अपना ज्ञान प्रसिद्ध करना उचित है. इसीवास्ते पूज्यपाद श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वर (आत्मारामजी) महाराजजीने भव्यजीवोंके उपकारकेवास्ते, अतिशय परिश्रम करके, लोक (देश)भाषामें ग्रंथोंकी रचना करनी प्रारंभ करी. जिनमें जैनतत्त्वादर्श, अज्ञानतिमिरभास्कर, जैनप्रश्नोत्तरावलि, सम्यक्त्वशल्योडारादि कितनेही ग्रंथ छपकरके प्रसिद्ध होगये हैं; कितनेक प्रसिद्ध करनेकेवास्ते तैयार हैं. परंतु प्रथम इस 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद' नामक ग्रंथको प्रसिद्धि में रखते हैं. इस ग्रंथका नाम यथार्थही गुणनिष्पन है. क्योंकि, जो कोई निष्पक्षपाती, इस ग्रंथरूप प्रासाद(मंदिर)में प्रवेश करेगा, अवश्यमेव वस्तुस्वरूपनिर्णय प्राप्त करेगा. इस ग्रंथके बनाने में For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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