SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्विंशस्तम्भः विलस्तप्रमाण पृथुल (चौडा) और तीन विलस्तप्रमाण दीर्घ (लंबा) कौपिन दोनों हाथोंमें लेके ॥ “॥ॐ अर्ह आत्मन् देहिन मतिज्ञानावरणेन श्रुतज्ञानावरणेन अवधिज्ञानावरणेन मनःपर्यायावरणेन केवलज्ञानावरणेन इंद्रियावरणेन चित्तावरणेन आवृतोऽसि तन्मुच्यतां तवावरणमनेनावरणेन अर्ह ॐ ॥” इस वेदमंत्रको पढता हुआ, उपनेयके अंतःकक्षको कोपीन पहरावे । तदपीछे उपनेय ‘नमोस्तु २' कहता हुआ, फिर भी गुरुके पगोंमें पडे । फिर तीन २ प्रदक्षिणा करके चारों दिशामें शकस्तवपाठ करे.॥ तदनंतर लग्नवेलाके हुए गुरु, पूर्वोक्त जिनोपवीतको अपने हाथमें लेवे पीछे उपनेय फेर खडा होकर हाथ जोडके ऐसें कहे ॥ “॥ भगवन् वण्णोज्झितोऽस्मि । ज्ञानोज्झितोस्मि । क्रियोज्झितोस्मि । तजिनोपवीतदानेन मां वर्णज्ञानक्रियासु समारोपय ॥” ऐसें कहके 'नमोस्तु २' कहता हुआ गृह्यगुरुके पगोंमें पडे गुरु फिर पूर्वोक्त उत्थापनमंत्रकरके तिसको उठाके खडा करे । तदपीछे गुरु दक्षिण हाथमें जिनोपवीत रखके ॥ "॥ॐ अर्ह नवब्रह्मगुप्तीः स्वकरकारणानुमती रयेः तदक्षयमस्तु ते व्रतं स्वपरतरणतारणसमर्थो भव अर्ह ॐ॥" क्षत्रियको “॥करणकारणाभ्यां धारयेः स्वस्य तरणसमर्थो भव ॥" वैश्यको “॥ करणेन धारयेः स्वस्य तरणसमर्थो भव ॥” शेषं पूर्ववत् ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy