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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्विशस्तम्भः। अर्थः-अग्निहोत्रि ब्राह्मणोंका तो, अग्निही देव है, अर्थात् अग्निविघेही देवबुद्धि है; और योगिजनोंके हृदयमेंही देव है; क्योंकि, योगाभ्यासी मुनिजन तो, अपने पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत, ध्यानके बलसें अपने हृदयमेंही देवका स्वरूप ध्याय सकते हैं; और जो अल्पबुद्धि अर्थात् गृहस्थधर्मी श्रावकादि हैं, तिनोंको भगवान्की प्रतिमाही देव है; तिसकेही पूजन, ध्यान, प्रभावना, उत्सव, रथयात्रा, करनेसें कल्याण है. और जिनोंने आत्मखरूप जाना है, ऐसें यति, ऋषि, मुनियोंको तो सर्वजगें देव मालुम होता है; अर्थात् ध्याता, ध्येय, ध्यान, ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान रूपकरके सर्व देवखरूपही है. ॥ इसवास्ते शिखासूत्रविवर्जित ब्रह्मगुप्तिरत्नत्रय करण कारण अनुमतिमें सदैव आदरवाले यतिजन हैं.। और गृहस्थी, ब्रह्मगुप्तिरत्नत्रयलेशश्रवणस्मरणमात्रसें ब्रह्मगुप्तिरत्नत्रयको सूत्रमुद्राकरके हृदयमें धारण करते हैं.। 'प्रतिमाखल्पवुद्धीनां इसवचनसें॥ तदात्मकत्वके न हुए मुद्राका धारण है.। जैसें छद्मस्थको बाह्य अभ्यंतर तपःका करणा है. । तथा नवतंतुगर्भत्रिसूत्रमय एक अग्र ऐसें तीन अग्र ब्राह्मणको, दो अग्र क्षत्रियको, एक अग्र वैश्यको, शूद्रको उत्तरीयक, और अपरको उत्तरासंगकी अनुज्ञा है.। ऐसा विशेष क्यों है ? सोही कहते हैं.। ब्राह्मणोंने नवब्रह्मगुप्तियुक्त ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रय आप पालन करणे, अन्योंसे करावणे, अन्य करतांको अनुमति देणी. ॥ ब्रह्मगुप्तिगुप्ताइति।ब्राह्मण आप रत्नत्रयीको अध्ययन सम्यक्दर्शन चारित्र क्रियायोंकरके आचरते हैं, अन्योंसें अध्यापन सम्यक्त्वोपदेश आचार प्ररूपणाकरके रत्नत्रयीका आचरण करवाते हैं, और ज्ञानोपाशन सम्यग्दर्शन धर्मोपाशनादिकोंकरके श्रद्धा करनेवाले और अनुज्ञा मांगनेवाले अन्योंको अनुज्ञा देते हैं, इसवास्ते नवब्रह्मगुप्तिगर्भ रत्नत्रय करण कारण अनुमतिवाले ब्राह्मणोंको जिनोपवीतमें तीन अग्र.। और क्षत्रियोंको आप रत्नत्रयका आचरण करणा, और निजशक्तिसें न्यायप्रवृत्तिकरके अन्योंसे आचरण करावणा योग्य है, परंतु तिन क्षत्रियोंको अन्य जनोंको अनुज्ञा देनी योग्य नहीं है. क्योंकि, वे ठकुराइवाले प्रभु For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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