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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२७) वास्ते श्रुवज्ञान पढा निमित्त कारण है; श्रुतज्ञानके सुनने से जीवको शुद्ध स्वरूप विशुद्ध श्रद्धानकी प्राप्ति होती है, और उससें शुद्धात्माका आचरण आसेवन अनुभव उत्पन्न होता है, सोही परमपद प्राप्नि जाननी. श्रुतज्ञानके श्रवण करनेसें जीव, धर्मको विशेषकरके जानता है, विवेकी होता है, दुर्मतिका त्यागी होता है, यावत् मोक्षको प्राप्त होता है. इसवास्ते भुबहानका आदर, अवश्य करना चाहिये. श्रुतन्नानका संयोग होना जीवको अतीव दुर्लभ है. श्रुतमानके संयोगसें श्री गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी, जंबूस्वामी प्रभृति बहुत जीव, संसार समुद्रको तर गये. और वर्तमानकालमें महाविदेहक्षेत्रमें श्री सीमंधरादिक तीर्थंकरोंकी वाणी सुनके, बहुत जीव, तर रहे हैं. और आगामिकालमें पद्मनाभादि तीर्थंकरोंकी गाणी मुनके, अनेक जीव, तरेंगे. तैसेंही इस भरतादि क्षेत्रमें अद्यतनकालमें भी, जो जीव, श्रुतमानको मुनेगा, पढेगा, औरोंको पढावेगा, अंतरंग रुचिसे श्रद्धा प्रतीत करेगा, करावेगा, सो, मुलभबोधि होवेगा, यावत्क्रमकरके मुक्ति को प्राप्त होगा. ऐसे श्रुतज्ञानका मूल, बादशांगी है. तिस श्रुतज्ञानकी वाचना (१) पृच्छना (२) परावर्तना (३) अनुप्रेक्षा (४) मौर धर्मकया (५) होती है. सो धर्मकथा, श्री उबवाइसूत्रमें चार प्रकारकी कही है माक्षेपिणी (१) विक्षेपिणी (२) निदिनी ( 3 ) और संवेदिनी (४). जिससे एक तत्त्व मार्गमें प्रवृत्ति होवे, तिस कथाका नाम भाक्षेपिणी कथा है. । १ । जिसमें मिथ्यात्वकी निवृत्ति होने, तिसका नाम विक्षेपिणी है. १२ । जिससे मोक्षकी अभिलाषा उत्पन्न होवे, तिसका माम निवेदिनी है. । ३ । जिससे वैराग्यभावकी उत्पत्ति होवे, तिसका नाम संवेदिनी है. । ४। ऐसी श्रुतकामरूप कथा, श्री अरिहंत, देवाधिदेव, परमेश्वर, तीर्थकर, सवर्स, जीवनमोक्ष, समवसरणमें बैठके " उपनेइवा विगमेइवा धुवेइवा" इस त्रिपदी उच्चारणपूर्वक, द्वादश पर्षदाके मध्य में करते हैं. और तिससें (त्रिपदीसें ) श्रीगणधर, द्वादशांगीकी रचना करते हैं, विनको सूत्र कहते हैं. तथा तीर्थकरके शासन में हुए प्रत्येक बुद्ध, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर प्रभृति महान पुरुष जिन जिन निबंधों की रचना करते हैं, तिनका भी सूत्र संज्ञा होनेसें द्वादवांगीही समावेश होता है. क्योंकि, वे सूत्र भी, द्वादशांगीका माश्रय लेकेही, स्थविर, रचते हैं. यदुक्तं श्रीनंदीवृत्तौ ॥ यत्पुनः शेषैः श्रुतस्थविरैस्तदेकदेशमुपजीव्य ॥ विरचितं तदनंगप्रविष्टमित्यादि ॥ परंतु गणधरकृत सूत्रको, 'नियतसूत्र' कहते हैं, और स्थविरकृत मूत्रको, 'पनियत' कहते हैं। उक्तंच ॥ गणहरकयमंगकयं जंकय थेरेहिं बाहिरं तं तु॥ नियतं चंगपविठं अणिययं सुययाहिरं भणियं ॥ १॥ गणपरकृतको अंगप्रविष्ट कहते हैं, और स्थविरकृतको अनंगप्रविष्ट, अर्थात् अंग बाहिर कहते हैं; तथा जो, अंग प्रविष्ट है, सो नियत है. क्योंकि, सर्व क्षेत्रोंमें सर्व काल अर्थ वा क्रमको अधिकारकरके ऐसेंही व्यवस्थित होनेसें. और शेष जो, भंगवाहिर For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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