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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीपरमात्मने नमः॥ उपोद्घात विदित होवेकि, इस संसारसमुद्रमें सतत पर्यटन करनेवाले प्राणियोंको, जन्ममरणादिक अत्युन दुःखों से मुक्त करनेवाला, केवल एक धर्मही है. अन्यमतावलंबीयोंके शास्त्रोंमें भी, ऐसेंही कहा हुआ है. ऐसा जो धर्म, उसका मूल तो सर्वाशयुक्त दयाही है। दयाकरके धर्मकी प्राप्ति होती है, और परिपूर्ण धर्मकी प्राप्ति हुए, जीव, मोक्षको प्राप्त होता है. इसवास्ते दया सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है. सर्वमतोंवाले दयाका उपयोग करते हैं, परंतु सर्वांश दयाका उपयोग करते नही है। इसीवास्ते उनको धर्मपदार्थका जैसा चाहिये, वैसा लाभ नही प्राप्त होता है. दयाका सर्वांश उपयोग तो, केवल जैनदर्शनमेंही स्वीकार किया है; तिससेंही जैनदर्शन, धर्मधुरीसर कहा जाता है. इसवास्ते दयाका सर्वाश उपयोग करना आवश्यक है. क्योंकि, जब दया पदार्थ सर्वाशयुक्त पालनेमें आवे, तबही तिससे धर्मोपलब्धि होवे; अन्यथा कदापि नही. सर्वमतावलंबि. योंको दया मान्य है, तथापि उनके समझने में फरक होनेसें, वे, श्रेष्ठतापूर्वक दयाका सर्वांशउपयोग, नही करसकते हैं. यह वात, इस ग्रंथके अग्रेतनव्याख्यानसे सिद्ध हो जायगी; तथा श्रीसूत्रकृतांगादिशात्रोंमें भी वर्णन किया है कि,-कितनेक (अन्यधर्मी) कहते हैं, प्राणी जबतक शरीरमें सुखी होवे, तबतक उसके ऊपर दया करनी, परंतु जब वह, व्याधिग्रस्तस्थितिमें पीडित होवे, तबतो, उस प्राणीका वध करके, पीडासे मुक्त करना, सोही दया है. कितनेक कहते हैं कि, सूक्ष्म, अथवा स्थूल जे प्राणी, मनुष्योंको दुःख देते हैं, उनको मारदेना, यही दया है. कितनेक यज्ञयागादिमें प्राणियोंका नाश करनेमेंही धर्मधुरंधरता, और दया मानते हैं. या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ॥ अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाधर्मो हि निर्बभौ ॥ इत्यादि वचनात्. भावार्थ:-इस चराचर जगत्में जो वेदोक्त हिंसा नियत की गई है उसको अहिंसाही जानना चाहिये। क्योंकि, वेदसेंही धर्मकी उत्पत्ति हुई है, इत्यादि। और कितनेक अतिसूक्ष्मादि प्राणी, जिसका स्वरूप दृष्टिगोचर नही, उसकी किंचित्मात्र भी चिंता नही करते हैं; किंतु केवल स्थूलपाणियोंके ऊपरही दया करनेमें दया मानते हैं. ऐसे अनेक प्रकारसे मनःकल्पित दयाका उपयोग, प्रायः अन्यमतावलंबी करते हैं; तथापि, वे, स्वदया १, परदया २, द्रव्यदया ३, भावदया ४, निश्चयदया ५, व्यवहारदया ६, स्वरूपदया ७, अनुबंधदया ८, इत्यादि दयाके जो अनेक भेद जैनग्रंथों में सविस्तर वर्णन किये हैं, तदनुसार प्रवृत्त होके, दयाका स्वरूप, नयशैलीपूर्वक समझते नहीं हैं; यही उनकी मतिमें विभ्रम है, और ऐसी भ्रमितमतिवाले दर्शनियोंका मत, कदापि शुद्ध नहीं. किंतु, For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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