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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८४ तत्त्वनिर्णयप्रासादक्तस्य रिपुप्रहारिणः प्रपञ्चतोनुग्रहशापकारिणः । सामान्यपुंवर्गसमानधमिणो महत्वक्लुप्तौ सकलस्य तद्भवेत् ॥ १॥" भावार्थः । काममें रक्त, प्रपंचसे शत्रुओंको प्रहार करनेवाला, अनुग्रह और शाप करनेवाला, ऐसे सामान्य पुरुषवर्गके सदृश कृत्यके करनेवालेको महत्वकी कल्पना करे हुए, सर्वप्राणियोंमें भी महत्वकी कल्पना होवेगी. अर्थात् ब्रह्माका भी, विष्णु छलकरके शत्रुओंको मारनेवाला, और महादेव तुष्टमान रुष्टमान होनेवाला, यदि इत्यादिकोंमें महत्वकी कल्पना होवे तो, तादृश सर्व प्राणियोंमें भी होनी चाहिए. ॥१॥ पुन: यहां 'अधीमहि' और 'वसि' ये विशेषण तिनके रागके सूचकही नहीं है, किंतु साहचर्यसे द्वेष और मोह भी जान लेने; तिनके पास शस्त्रादिके सद्भावसे, तिनमें द्वेष सिद्ध होता है; और पूर्वापर व्याहत अर्थवाला आगम कहनेसें मोह अज्ञानका सद्भाव सिद्ध होता है. ॥ यदुक्तं ॥ “रागोङ्गनासंगमनानुमेयो द्वेषो द्विषदारणहेतिगम्यः । मोहः कुवृत्तागमदोषसाध्यः” इत्यादि ॥ भावार्थः॥ राग तो स्त्रीसंगमनसे अर्थात् स्त्रीसें भोगविलासममतादिसें अनुमेय है, द्वेष वैरीयोंके मारनेवास्ते शस्त्रोंके रखनेसें अनुमेय है, और कुत्सित आचरण और पूर्वापरव्याहतिवाला शास्त्र कथन करनेसें मोह-अज्ञान अनुमेय है, इत्यादि ॥ आचार्यादिकोंके तो सर्वथा रागादि क्षय नही है, ऐसे मत कहना. क्योंकि, तिनको भी आप्तके उपदेशसें रागादिके क्षयवास्तेही प्रवृत्त होनेसें, तथाविध रागादिके असद्भावसें, और तिस रागादिकका आगामि कालमें क्षय होनेसें. भाविनिभूतवदुपचारात्-तिनको भी वीतरागताही है. यहां भावाचार्यादिकोंकरकेही अधिकार है, इसवास्ते सर्व समंजस है ॥ इत्यार्हताभिप्रायेण मंत्रव्याख्या ॥१॥ अथाक्षपादाभिप्रायेण व्याख्यायते तत्रादौ मन्त्रः ॥ ॐ। भूर्भुवःस्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेव स्य धीमहिधियो यो नः प्रचोदयात् ॥१॥२॥ ॐ । भूर्भुवःस्वस्तत् । सवितुः । वरेण्यं । भर्ग । उदे । अव । स्य । धीम् । आहिधियः । अयो । नः । प्रचोदया । अत् ॥ २॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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