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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir एकादशस्तम्भः। २८१ भाषार्थः-(ॐम् ) यह ॐकार पंच परमेष्ठीको कहता है, कैसें कहता है ? सोही कहते हैं ‘अर्हन्तः' इस पदका आद्य अक्षर अकार है, 'अशरीरा:-सिद्धाः-इस पदका आद्य अक्षर अकार है 'आचार्यः' इसका आद्य अक्षर आकार है, 'उपाध्यायाः' इसका आय अक्षर उकार है, 'मुनिः' इसका आय व्यंजन स्वररहित मकार है, इन सर्वका संधि होनेसें 'ॐ' सिद्ध होता है. * पदके एक देशमें भी पदका उपचार होनेसें ऐसी उक्ति है. सोही ॐकार असाधारण गुणसंपदाकरके विशेषण वाला कथन करिये हैं ( भूर्भवःस्वस्तत् ) 'भूः' यह अव्यय भूलोकका वाचक है 'भुवः' पाताललोकका, और 'स्वः' स्वर्गलोकका, तीनोंका द्वंद्वसमास होनेसें भूर्भुवःस्वः' अर्थात् अधोलोक, तिर्यग्लोक, और स्वर्गलोकरूप तीनों लोकोंको, 'तत्' 'तनोति-ज्ञानात्मना व्याप्नोति' ज्ञानात्माकरके व्यापक होवे, सो ‘भूर्भुवःस्वस्तत्' अर्हत् सिद्धोंको सर्व द्रव्यपर्यायविषयिक केवलज्ञानात्माकरके तीनों लोकोंमें व्याप्त होना प्रसिद्धही है । ज्ञान और आत्माका 'स्यादभेदात्' कथंचित् अभेद होनेसें. शेष आचा र्यादि तीनोंको भी, श्रद्धानविषयकरके सर्वव्यापित्व है, 'सव्वगयं सम्मत्तमितिवचनात्' अथवा सामान्यरूप ज्ञानकरके सर्वव्यापित्व है। इसवास्तेही ( सवितुः वरेण्यम् ) सहस्ररश्मीयोंवाले सूर्यसें भी प्रधानतर है, सूर्यके उद्योतको देशविषयक होनेसें, और इन अहंदादि पांचों संबंधि भावउद्योतको सर्वविषयक होनेसें. । आहुश्च पूज्याः । चंदाइच्चगहाणं पहा पयासेइ परिमियं खित्तं । केवलियनाणलंभो लोगालोगं पयासेइ॥१॥+ __ऐसें न कहना कि,आचार्यादि तीनोंको केवलज्ञानका लाभ नहीं है तो, तिनको व्यापित्व कैसे है? क्योंकि तिनको भी कैवलिकज्ञानोपलब्ध पदा_* ॥ अरिहंता असरीरा आयरिया उवब्भाया मुणिणो । पंचरकरनिप्पन्नो ॐकारो पंचपरमेठी ॥१॥ इतिवचनात् ॥ + [ चंद्रादित्यग्रहाणां प्रभाः प्रकाशयति परिमितं क्षेत्रम् । कैवलिकज्ञानलाभो लोकालोकं प्रकाशयति ] भावार्थः-चंद्रसूर्यग्रहोंका प्रकाश, प्रमाणसंयुक्त क्षेत्रको प्रकाश करता है और केवलज्ञान, लोकालोकको प्रकाश करता है। इसवास्ते सूर्य के प्रकाशसें केवलज्ञानका प्रकाश प्रधानतर है.। इति ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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