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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६३ दशमस्तम्भः। मैं तेरा बहुमान करूंगी. ऐसें इंद्रको कहके फिर अपाला विचार करती है कि, इहां आया यह इंद्रही है, अन्य नही. ऐसा निश्चय करके अपने मुखमें डाले सोमको कहती है, हे सोम ! तूं आए हुए इंद्रकेतांइ पहिले हलवे २, तदपीछे जलदी २, सर्वओरसे स्त्रव. तदपीछे इंद्र तिसको वांछके अपालाके मुखमें रहे दाढोंसें पीसे हुए सोमको पीता हुआ. तदपीछे इंद्रके सोम पीया हुआं, त्वग्दोषके रोगसे मुझको मैरे पतिने त्याग दीनी है, अब मैं इंद्रको सम्यक् प्रकारे प्राप्त हुई हुँ; ऐसें अपालाके कहे हुए इंद्र अपालाको कहता हुआ कि, तूं क्या वांछती (चाहती) है ? मैं सोही करूं. इंद्रके ऐसें कहे थके अपाला वर मांगती है कि, मेरे पिताका शिर रोमरहित (टट्टरीवाला) है ।१। मेरे पिताका खेत उपर (फलादिरहित) है ।२। और मेरा गुह्यस्थान भी रोमरहित है । ३ । येह पूर्वोक्त तीनों रोम फलादियुक्त कर दे. ऐसे अपालाके कहे हुए तिसके पिताके शिरकी टहरी दूर करके, और खेतको फलादियुक्त करके, अपालाके त्वग्दोषके दूर करनेकेवास्ते अपने रथके छिद्रमें गाडेके और युगके छिद्रमें अपालाको तीन वार तारकीतरें बैंचता हुआ, तिस अपालाकी जो पहिली वार चमडी उतरी तिससे शल्यक (मयना), दूसरी चमडीसें गोधा (गोह) हुई, और तीसरी वेर उतरी चमडीसें किरले (कांकडे) होते भए. तिसपीछे इंद्र तिस अपालाको सूर्यसमान चमकती हुई चमडीवाली करता हुआ. यह इतिहासिक कथा है. और यह, कथा, शाट्यायन ब्राह्मणमें स्पष्टपणे कही है. और यही ऊपर लिखा हुआ अर्थ, कन्यावार इत्यादि सात मचायोंमें कथन करा है; वे ऋचायें येह हैं. ॥प्रथमा॥ कन्या ३ वारवायती सोममपि स्रुताविदत्। अस्तं भरन्त्यब्रवीदिन्द्रीय सुनवै त्वा शुक्राय सुनवै त्वा॥१॥ ॥ अथद्वितीया॥ असौ य एषि वीरको गृहं गृहं विचाशत् । इमं जम्भसुतंपिव धानावन्तं करम्भिणमपूयवन्तमुक्थिनम्।२॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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