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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तेवन करके को निकालके शाति करता भयान करा, तब हृदयाचरकालतक दशमस्तम्भः। २५१ तथा ऋ० सं० अष्टक ४ अध्याय ४ वर्ग २० में लिखा है कि--सप्तवधिनामा ऋषि था, तिसके भतीजे तिसको पेटीमें घालके मुद्रा करके बडे यत्नसें अपने घरमें स्थापन करते हुए; जैसें रात्रिमें अपनी स्त्रीसें विषय सेवन न करे, तैसें करते हुए. सवेरे २ तिस पेटीको उघाडके तिसको मारपीटके फिर पेटीमें घालके रखते भए. ऐसें चिरकालतक सो कृश और दुःखी तिस पेटीमें रहा, चिरकालतक मुनिने तिस पेटीसें निकलनेका उपाय चिंतन करा, तब हृदयमें निश्चय करके अश्विनौ देवतायोंकी स्तुति करता भया; तब अश्विनौ आए, पेटी उघाडके तिसको निकालके शीघ्र अदृष्ट हो गए. सो ऋषि भार्यासे विषय सेवन करके तिनके भयसें सवेरे पेटीमें प्रवेश करके पूर्वकीतरें स्थित रहा; तिस ऋषिने पेटीके निवास समयमें येह दो ऋचायों देखी, जो आगे कहेंगे. ॥ इतिभाष्यकारः॥ अव श्रुतियां लिखते हैं. ॥प्रथमा ॥ वि जिहीष्व वनस्पते योनिः सूष्यन्त्या इव । श्रुतं में अश्विना हवं सप्तवधिं च मुञ्चतम् ॥१॥५॥ ॥अथद्वितीया ॥ भीताय नाधमानाय ऋषये सप्तर्वध्रये। मायाभिरश्विना युवं वृक्षं सं च वि चाचथः॥२॥६॥ भावार्थः हे वनस्पतिके विकाररूप पेटी! तूं स्त्रीकी योनिकीतरें चौडी हो जा, जैसें स्त्रीकी योनि संतानके जननेके समयमें चौडी हो जाती है, तैसें तूं भी हो जा. हे अश्विनौ ! तुम सप्तवधिकी विनती सुनके मूल सप्तवधिको छुडावो! निकलते हुए डरतेको, और निकलना वांछतेको, हे अश्विनौ ! ऐसे मूझ सप्तवधिको इस पेटीसें निकालनेको आओ.॥ अब वाचकवर्गो! तुम देखो कि, यह परमेश्वरकी कैसी भक्तवत्सलता है कि, पेटीमें बैठे अपने भक्त सप्तवधि ऋषिको कैसी ज्ञानरसकी भरी For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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