SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४० तत्त्वनिर्णयप्रासादतिसका एक पति कथन करना था, ऋतुकालमें तिस परमात्मारूप स्त्रीसें भोग-वीर्यनिषेक करना, पीछे गर्भ धारण करना, पीछे प्रजापति ब्रह्माजीका जन्म, इत्यादि कथन करते तो तुमारी कुछक किंचिन्मात्र अलंकारकी आकांक्षा भी पूर्ण होती. परंतु ऐसें है नहीं, इसवास्ते यह अलंकार भी नहीं है. हे पाठकगणो! तुम पक्षणातको छोड कर, और जरा नेत्र उन्मीलन करके विचार तो करो कि सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, त्रैलोक्यनाथ, करुणासमुद्र, कृतकृत्य अष्टादशदूषणरहित, परमात्मा, वीतरागका उपहास्य योग्य, और युक्तिप्रमाण बाधित, ऐसा कथन हो सक्ता है ? कदापि नही हो सकता है. ऐसी२ मिथ्या कल्पनाजाल खडी करके भव्य जीवोंको फसाय २ के अज्ञानीयोंने अपने वशप्रायः कर लिए हैं !!! ___ ऊपर जो समीक्षा करी है, सो ऋगादिभाष्यभूमिकेंदुनामक पुस्तकमें लिखे अर्थानुसार है. अब महीधरकृत वेददीप भाष्यमें जो अर्थ लिखा है, सो लिखते हैं. (ह) प्रसिद्धार्थ में है (प्रथमः) सर्वका आदि आयंतरहित पुरुष (महति अर्णवे) कल्पांतकालसमुद्रमें (अंतः) मध्यमें (गर्भं दधे) गर्भको स्थापन करता भया. कैसा पुरुष ? (सुभूः) भली भूः-उत्पत्ति होवे जिससे सो सुभूः अर्थात् विश्व-जगत् उत्पन्न करनेवाला ( स्वयंभूः) वयंभवतीति स्वयंभू स्वेच्छाधृतशरीरः-अपनी इच्छासें शरीर धारण करनेवाला. कैसा है गर्भ ? (ऋत्वियं) ऋतुः प्राप्तोयस्य-ऋतु प्राप्त हुआ है जिसको अर्थात् प्राप्तकालम् (यतः) जिस गर्भसे (प्रजापतिः) ब्रह्मा (जातः) उत्पन्न भया-इति ॥ ६३॥ समीक्षाप्रायः पूर्ववत् ॥ अब दयानंदखामीका भी अर्थमात्र पूर्वोक्तश्रुतिका लिखते हैं ॥ हे जिज्ञासुजन ! (यतः) जिस जगदीश्वरसें (प्रजापतिः) विश्वका रक्षक सूर्य (जातः) उत्पन्न हुआ है और जो (सुभूः) सुंदर विद्यमान (स्वयंभू ) जो अपने आप प्रसिद्ध उत्पत्ति विनाश रहित (प्रथमः) सबसे प्रथम जगदीश्वर (महति) बडे विस्तृत (अर्णवे ) जलोंसे संबद्ध हुए संसारके (अंतः) बीच (ऋत्वियम् ) समयानुकूल प्राप्त ( गर्भम् ) बीजको (दधे) धारण करता है (ह) उसीकी सबलोग उपासना करें ॥ ६३॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy