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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२२ तत्त्वनिर्णयप्रासादउत्तरपक्षः--तब तो एक २ अंशकी मुक्ति होनेसें संपूर्ण ब्रह्मकी कदापि मुक्ति नहीं होवेगी, इत्यादि अनेक दूषण होनेसें यह कथन भी मिथ्या है. तथा ब्रह्म जो है, सो ज्ञानस्वरूप है, तिसकों जड विराटका उपादानकारण मानना यह युक्तिप्रमाणसें विरुद्ध है. क्योंकि, चैतन्यवस्तु कदापि जडका उपादन कारण नहीं हो सकता है ॥ विना परमाणुयोंके भूमिसृजन और शरीर रचे लिखा है, सो भी मिथ्या है. क्योंकि, परमाणुयोंकों नित्य मानना है सो तो अद्वैतमतकी जड़कों काटना है, और विनाही परमाणुयोंके जडभूमि और जीवोंके शरीरोंका उपादानकारण ज्ञानस्वरूप ब्रह्म मानना, सो तो त्रिकालमें भी युक्तिप्रमाणसें कदापि सिद्ध नहीं होवेगा. जेकर युक्तिप्रमाणके विनाही मानोंगे, तब तो प्रेक्षावानोंकी पंक्तिसें बाहिर हो जावोंगे, और चार्वाक नास्तिक मतकी प्रवृत्ति भी वेदसेंही सिद्ध होवेगी. क्योंकि, पंजाव देशमें, फुल्लोरनगरके वासी, पंडित श्रद्धारामजीने सत्यामृतप्रवाह नामक ग्रंथ रचा है, तिसमें इस मतलबका लेख लिखा है-वेदमें दो तरेकी विद्या कही है, एक अपरा और दूसरी परा, तिनमेंसें संहिता ब्राह्मण उपनिषद प्रमुखमें प्रायः अपरा विद्याही कथन करी है, और परा विद्या प्रायः गुप्तही रक्खी है. मेरेकों परा विद्याकी खबर बहुत दिनोंसें थी, परंतु जगत् व्यवहारीयोंकी शंकासें मैनें प्रकाश नही करी, अब में अंतमें परा विद्याका स्वरूप लिखता हूं. यह जो ब्रह्मांड दिखलाइ देता है, यही ब्रह्म है. और श्रुति भी यही बात कहती है-" सर्वं खल्विदं ब्रह्म इत्यादि-' इदं पदकरके यह दृश्यमान जगत्ही ग्रहण करणा, यह जो पंचभौतिक जगत् है, सोही ब्रह्म है, इससे अतिरिक्त अन्य कोइ ब्रह्म नहीं है, यह ब्रह्मांड अनादि अनंत पंचभूतोंका एक गोलक है, इसकों न किसीने रचा है, और न कोइ इसकी प्रलय करनेवाला है, इस गोलकके अंदरही अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं, और इसमेंही लय हो जाते हैं; जैसें समुद्रके जलमें अनेकतरंग चक्रबुहृद उत्पन्न होते हैं, और जलमेंही लय हो जाते है, न कोइ आता है, और न कोइ जाता है, पांचभौतिक देहसें अन्य जीवना For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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