SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१८ तत्त्वनिर्णयप्रासादस्वभाव तिस समयमेंही प्रलय करेगा, तब तो सृष्टि, और प्रलय, ये दोनोंही होवेंगी; इसवास्ते प्रथम विकल्प मिथ्या है. जेकर ये दोनों स्वभाव अनित्य है तो, क्या ब्रह्मेश्वरसे भिन्न है कि, अभिन्न हैं ? जेकर भिन्न है तो, ईश्वरके ये दोनों स्वभाव नहीं है; ईश्वरसे भिन्न होनेसें. जेकर अनित्य, और अभिन्न है, तव तो जैसें स्वभाव उत्पत्तिविनाशवाले है, तैसें ईश्वर भी उत्पत्तिविनाशवाला मानना चाहिए; खभावोंसें अभिन्न होनेसें. परं ऐसें मानते नहीं है, इसवास्ते यह पक्ष भी मिथ्या है. जेकर स्वभाव रूपी है, तब तो ईश्वर भी रूपीहि होना चाहिए; क्योंकि, स्वभाव वस्तुसे भिन्न नहीं होता है. तब तो ईश्वरकों रूपी होनेसें जडताकी आपत्ति होवेगी, इसवास्ते यह भी पक्ष मिथ्या है. जेकर दोनो स्वभाव अरूपी है तब तो किसी भी वस्तुके कर्त्ता नही हो सक्ते है, अरूपित्व होनेसें; आकाशवत्. इसवास्ते यह भी पक्ष मानना मिथ्या है. __ जड पक्ष, रूपी पक्षकीतरें खंडन करना. और चेतन पक्ष, नित्यानित्य, और भेदाभेद पक्षमें अवतारके उपरकीतरें खंडन जान लेना. इसवास्ते स्वभाव पक्ष मानना केवल अज्ञानविजूंभित है; और श्रुतियोंमें जो सृष्टि रचनेकी इच्छा ईश्वरमें मानी है, सो भी अज्ञानविजूंभित प्रलापमात्रही है; परीक्षाऽक्षमत्वात्. ॥ इतिसृष्टिरचनायामीश्वरेच्छाखंडनम् ॥ छठी श्रुतिमें पूर्वपक्षकी तर्फसे प्रश्न करे है कि, कौन पुरुष परमार्थसें जानता है, और कौन कह सकता है कि, यह दिखलाइ देती नाना प्रकारकी सृष्टि किस उपादानकारणसें,और किस निमित्तकारणसें उत्पन्न भइ है? मनुष्य नही जानते, और नहीं कह सक्ते हैं; परंतु देवते सर्वज्ञ हैं, वे तो जानते होवेंगे, और कह भी सक्ते होवेंगे ? इस शंकाके दूर करनेवास्ते कहते हैं, अर्वागिति। इस भौतिक सृष्टिके उत्पन्न करे पीछे सर्व देवते उत्पन्न हुए हैं; इसवास्ते देवते भी नही जान सक्ते, और नही कह सक्ते हैं. शुक्लयजुर्वेदके १७ अध्यायकी १८।१९।२०। श्रुतियोंमें भी पूर्वपक्षकी तर्फसें प्रश्न पूछे हैं। परंतु ऋगवेदमें तो यह उत्तर दिया है कि, परमात्माने अपनी सामर्थ्यसें For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy