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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१२ तत्त्वनिर्णयप्रासादचतुर्थांशमेंही फुरणा होता है, नतु तीन अंशोंमें, तीन अंश तो सदा अफुरही रहते हैं, तब तो ब्रह्ममें स्वभावभेद हुआ, स्वभावभेदसेंही ब्रह्म अनित्य सिद्ध होवेगा, “स्वभावभेदो ह्यनित्यताया लक्षणमितिवचनात्.” । पूर्वपक्षः-प्रलयदशामें अव्याकृत ब्रह्म है, जब सर्व जीवोंके करे हुए शुभाशुभ कर्म परिपक्क हुए थके फल देनेके उन्मुख होते हैं, तब ईश्वरकों साक्षी फलप्रदाता होनेसे सृष्टिकी इच्छा होती है. उत्तरपक्षः-इस कथनसें तो ऐसा सिद्ध होता है कि, अव्याकृत ब्रह्ममें अनंत जीव, और अनंततरेके तिन जीवोंकरके पुण्यपाप, और पचं भूतोंका उपादान कारण, ये सर्व सामग्री ब्रह्ममें सूक्ष्मरूप होके लीन हुइ होइ थी; जब ऐसें था, तब तो अद्वैतकी सिद्धि कदापि नहीं होवेगी. जेकर कहोंगे ये सर्व सामग्री ब्रह्मसें अभेदरूप होके ब्रह्मके साथ रहती थी, तब तो सर्व कुछ ब्रह्मा द्वैतरूपही हुआ; जब अद्वैत ब्रह्मही था, तब तो जीव अनंत पूर्वकल्पके करे अनंततरेंके पुण्यपाप और पुण्यपाप परिपक्क होके फल देनेके उन्मुख होते हैं, तब ईश्वरकों सृष्टि करनेकी इच्छा उत्पन्न होती है, यह सर्व कहना महामिथ्या सिद्ध होवेगा. क्योंकि, न तो कोइ ब्रह्मसें अन्य जीव है, न शुभाशुभ कर्म है, न कर्ता है, न फल है, और न फल देनेके उन्मुख कर्म होते हैं. क्योंकि, एक ब्रह्माद्वैतही तत्त्व है. पूर्वपक्षः-ब्रह्मही अनंत जीव है, ब्रह्मही शुभाशुभ कर्म, ब्रह्मही कर्मका कर्ता, ब्रह्मही कर्मफल भोक्ता, ब्रह्मही अपने करे कर्मफल भोगनेकी इच्छा करके जगत् रचता है. उत्तरपक्ष:-जब तुम्हारे कहे प्रमाण सर्व कुछ ब्रह्मही है, तब तो तुम्हारे ब्रह्मसमान अज्ञानी, अविवेकी, आत्मघाती, अन्य कोई भी नहीं है. क्यों कि, जब नानायोनियों में नानाप्रकारके शीत, ताप, क्षुधा, तृषा, संयोग, वियोग, कुर, जलोदर, भगंदर, अप्समार, क्षयी, ज्वर, शूल, नेत्रवेदना, मस्तकवेदना, जन्म मरणादि अनंत दुःख अपने करे कर्मोंसें भोगता है, तब तो पाप करनेके अवसरमें ब्रह्मकों यह मालुम नहीं था कि, इन For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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