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________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अधमस्तम्भः। २०९ गा; तो फेर, ऋग्वेदकी श्रुतिकी कही अनिर्वाच्य माया, प्रलयदशामें क्योंकर सिद्ध होवेगी? जेकर कहोंगे, अव्याकृत, अर्थात् माया, और ब्रह्मके पृथक्प न होनेसें एकही आत्मा कहा है; तब तो, ब्रह्मकेसाथ ओतप्रोत होनेसें ब्रह्मके सत्स्वरूपकीतरें, माया भी सत्खरूपवाली सिड होवेगी. सब तो ऋग्वेदकी श्रुतिने जो प्रलयदशामें मायाको सत् असत् स्वरूपसे विलक्षण जो अनिर्वाय कथन करी है, यह कहना मिथ्या सिद्ध होवेगा. और जब एकही ब्रह्म सत्स्वरूप था, तब तो इस जगत्का उपादान कारण भी सत्स्वरूप ब्रह्मही सिद्ध होवेगा, तब तो यह जडचैतन्य पंचरूप जगत् ब्रह्मरूपही सिद्ध हुआ. तब तो, धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप, ज्ञान, अज्ञान, सत्कर्म, असत्कर्म, स्वर्ग, नरक, धर्मी, अधर्मी, साधु, असाधु, सजन, दुर्जन, गुरु, शिष्य, शास्त्र, इत्यादि कुछ भी सिद्ध नहीं होवेगा. तब तो, चार्वाक, और वेदांतमतवालोंके सदृशपणाही सिद्ध हुआ. क्योंकि, चार्वाक तो, चार भूतोंकाही कार्यरूप यह जगत् मानते हैं, अन्यधर्मा धर्मादि ऊपर कहे हुए है नही. और वेदांती, सर्व इस जडचैतन्यरूप जगत्का उपादानकारण एक सत्स्वरूप ब्रह्मही मानते हैं, इसवास्ते तिनके मतमें भी ऊपर.कहे धर्माधर्मादिक नहीं है. इसवास्ते चार्वाक, और वेदांतमतवाले ये दोनों नास्तिक सिद्ध होते हैं. क्योंकि, जो जीवोंकों अविनाशी नहीं मानता है, और पुण्यपापके हेतु,और पुण्यपापके फल भोगनेके स्थान नही मानता, आत्माको भवांतर गमन करनेवाला नही मानता है, और देवगुरुधर्मकों नही मानता है, सो नास्तिक है; येह पूर्वोक्त सर्व लक्षण वेदांतमतमें मिलते हैं. क्योंकि, जब सर्व कुछ ब्रह्मही है, तब तो सत्वरूप ब्रह्ममें अन्य कुछ भी पुण्यपापादि न माने जावेंगे, इसबास्ते असली वेदांतका सिद्धांत, अंतमें नास्तिक सिद्ध हो जाता है. पूर्वपक्षः-प्रलयदशामें एकही सत्खरूप ब्रह्म था, परंतु यजुर्वेदके सप्तदश (१७) अध्यायमें, और उपनिषदोंमें कहा है, और्णनाभि, अर्थात् मकडी कोलिकनामा जीव, जैसे अपने अंदरसेंही चेप जैसी वस्तु नि. २७ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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