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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६२ तत्वनिर्णयप्रासादभाग्यानि कर्माणियमः कृतान्तः पर्यायनामानि पुराकृतस्य ॥ ३॥ यत्तत्पुराकृतं कर्म न स्मरन्तीह मानवाः तदिदं पाण्डवज्येष्ठ दैवमित्यभिधीयते ॥४॥ व्याख्या-दैववादी ऐसे कहते हैं-स्व (अपणे), छंदे (अभिप्राय), सें धन, गुण, विद्या, धर्माचरण, सुख और दुःखादि नही होते हैं; किंतु कालरूप यान ऊपर चढा दैव, तिसके वशसें जहां दैव लेजाता है, तहांही में जाता हूं. । जैसें २ पूर्वकृत कर्मोका फल निधानकीता रहता है, पूर्वकृतनिकाचितकर्मका नामही दैव है, तैसें २ तिसके प्रतिपादनमें उद्यत हुआ, प्रदीप हस्तकीतरें मति प्रवर्ते है. । विधि १, विधान २, नियति ३, स्वभाव ४, काल ५, ग्रह ६, ईश्वर ७, कर्म ८, दैव ९, भाग्य १०, कर्म ११, यम १२, और कृतांत १३, यह सर्व पूर्वकृत कर्मोकेही पर्याय नाम है. । जिस कारणसे ते पूर्वकृत कर्म यहां मनुष्य नहीं स्मरण करते है, तिस कारणसें, यह, हे पांडवज्येष्ठ ! दैव कहा जाता है. ॥ १॥२॥३॥४॥ "स्वभाववादिनश्चाहुः॥" कः कण्टकानां प्रकरोति तीक्ष्णं विचित्रितां वा मृगपक्षिणां च ॥ स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोस्ति कुतः प्रयत्नः ॥ १॥ बदर्याः कण्टकस्तीक्ष्णो ऋजुरेकश्च कुंचितः॥ फलं च वर्तुलं तस्या वद केन विनिर्मितम् ॥२॥ व्याख्या--स्वभाववादी ऐसें कहते हैं-कौन पुरुष कंटकोंको तीक्ष्ण करता है ? और मृगपक्षीयोंका विचित्र रंग विरंगादि स्वरूप कौन करता है ? अपितु कोइभी नहीं करता है, स्वभावसेंही सर्व प्रवृत्त होते हैं, इसवास्ते अपनी इच्छासें कुछभी नही होता है, इसवास्ते पुरुषका प्रयत्न ठीक नहीं है. । बेरीका एक कांटा ऋजु (सरल) और तीक्ष्ण, और एक For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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