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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६० तत्त्वनिर्णयप्रासादसचेतनाचेतन वस्तु, इदश्वाक्यालंकारमें, जो कुछ अतीत कालमें हुवा, और जो आगे होवेगा, मुक्ति और संसार सो सर्व पुरुषही है; उतशब्द अपिशब्दार्थे और अपिशब्द समुच्चयविष है। अमृतस्य-अमरणभव (मोक्ष) का ईशानः प्रभु है। यदिति यच्चेति च शब्दके लोप होनेसें जो अन्नेनअहारकरके अतिरोहति-अतिशयकरके वृद्धिको प्राप्त होता है, यदेजतिजो चलता है पशुआदि, जो नहीं चलता है पर्वतादि, जो दूर है मेरु आदिजो निकट है, उशब्द अवधारणमें है, सो सर्व पुरुषही है; जो अंतर इस चेतनाचेतन पदार्थके बीचमें, और जो कुछ इसके बाह्यसें है, सो सर्व पुरुषही है; जिस पुरुषकेपरे अपर कोइ किंचित् त्राणरूप कल्याणकारी अतिचतुर नहीं है. तथा जो एक, आकाश, स्वर्गमें, वा रहता है, तिसही पुरुषकरके यह सर्व पूर्ण भराहुआ है. जब एकला पुरुषही रहजाता है, तब सर्व जगत् तिसपुरुषमेंही लय होजाता है, क्यों कि दोही पुरुष जगत्में है. एक क्षर-नाश होनेवाला, और दूसरा अक्षर-अविनाशी है; जितने जगत्में भूत हैं, वे सर्व क्षर हैं, और जो कूटस्थ है, सो अक्षर हैं ॥ १ ॥ __औरभी कहते हैं कि शास्त्रोंके विद्यमान हुए.और वक्तायोंके धारण करतेहुएभी जे पुरुष अपने आत्माको नहीं जानते हैं, वे पुरुष निश्चयकरके आत्महत (आत्मघाती) हैं. आत्माही देवता है, आत्मामेंही सर्व वस्तु व्यवस्थित है; आत्माही सर्व शरीरवाले जीवोंके कर्मका संयोग उत्पन्न करता है.। आत्माही धाता है, आत्माही विधाता है, आत्माही सुखदुःखमें है, आत्माही वर्ग है, आत्माही नरक है, और यह सर्व जगत् आत्माही है. । ईश्वर, लोकको न कर्त्तापणा रचता है, और न कर्मोको रचता है, किंतु अपने करे कर्मफलका संयोग स्वभावसेंही प्रवर्त्तता है. । आत्मज्ञान स्वभावकरके आपही मनन होनेका संभव होनेसे अपने कर्मोंसेंही जीव जगत्में उत्पन्न होता है, इसवास्ते जीवको स्वयंभू कहते हैं। इसआत्माको शस्त्र छेदन नहीं करसक्ते हैं, अग्नि दाह नहीं करसक्ता है, पाणी गीला नहीं करसक्ता है, और पवन शोषण नहीं करसक्ता है.। इसवास्ते यह आत्मा अच्छेद्य है, अभेद्य है, पूरापूरा स्वरूपकथन नहीं करसक्ते हैं इसवास्ते निरुपाख्य है, नित्य है, सर्वगत (सर्वव्यापक) है, स्थाणु (स्थिरस्वभाव) अर्थात् रूपांतरापत्तिकरके For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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