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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सकता है. रत्नत्रयि संपादित हुआ और सर्वज्ञादि विभूति शीघ्र प्राप्त होती है. सर्वज्ञादि विभूतिकी प्राप्ति ज्ञानमार्गके उदयसे परिणाममें प्राप्त होती है. और ज्ञानमार्गका उदय अलौफिक भावनासे भीजे हुए जैनमार्गकी शैलिकी महत्वता जैनदर्शनशास्त्रके अभ्यासकी वृद्धी होनेसेही हो सकता है. उसका उमदा रस्ता यह है कि हिंदुस्थानमें मुंबई जैसे एक मध्यस्थानमें एक बडी जैन पाठशाला स्थापित होनी चाहिये कि जिसमें अग्रेजी-देशी सांसारिक केलवीके साथ धार्मिक केलवणी बालपणसेंही दीजावे. बडे बडे शहरोंमें शाखा-पाठशालाए स्थापित करनी चाहिये. सद्बोध प्राप्त हुए विना कार्यकी सिद्धी नहीं होती है. ख्रिश्चनलोक कि जिस धर्मको वे ठीक समजते हैं, उसकी वृद्धि करनेके वास्ते करोडों रुपैयोंकी कान्तिका मोह तारके व्यय करते हैं. भमके पुस्तकोंकी लाखो नकलों छपाके लागतसें भी कमदामसे बेचते हैं. मुसलमान, याहुदी, पारसी, आदि प्रथम धर्मकी केलवणी अपने बच्चोंको देकर फिर उदर पोषणकी सांसारिक विया पढाते हैं. धर्माभ्यासके लिये इन लोकोंने जब सेंकडों शालाए बनाई है, तो सत्यके अपूर्व कीर्तिस्तंभकरके सुवर्णलताकी कान्तिरूप जैनदर्शनके अनुयायी उदरनिवाहकी व्यवहारग्रंथीमें लिपटके परमार्थ मागेकी स्वप्नावस्थामें कालरात्री गुजार रहे हैं. धनसंपन्नवर्ग विषयास्वादमें मग्न है; मध्यमवर्ग व्यवहारपटुतामें लुब्ध है. अधमवर्ग उदरनिर्वाहकी चितामें है, पंडित भावनासे शास्त्राभ्यासका कोई भी सुशील अवलोकन करनेवालेको अपूर्व जैनदर्शनकी यह स्थिति देख करके दया धर्मके प्रतिपादक जैनदर्शनपर दया करनेकाही समय आया है. विवेकी धनसंपन्न जैनधर्मीयोंको चाहिये कि अब अपने हृदयचक्षुसे धर्मकी स्थितिको देखकर जैनतत्त्वशास्त्ररूपरत्नको पहेल पढाके उसकी शुद्ध कांति प्रगट करनेको उद्युक्त होकर अपनी फरज यहि अपना कर्तव्य समजे, यही जीवनका तात्पर्य समजे, शिशुवयका बोध ज्ञानतंतुमें स्थायी रह सकता है, उसके संस्कार जीवनपर्यंत जींदगीको मधुरी निर्दोप करनेको सामर्थ्यवान् है. धर्मानुरागीको चाहीये कि ऐसी जैन पाठशाला स्थापन करानमें उद्यमवंत हो. ये अपूर्व ज्ञानामृतकी प्रसादीका लाभ अपने बालकोंको दें, इसमें अपना, अपने महान् धर्मका, अपने कुल, जाति और देशका उदय है. ऐसी एक पाठशाला स्थापन करनेको स्वर्गवासी बाबुसाहेब पन्नालालजीने अपने धनका सदुपयोग चार लाख रुपये ज्ञानमार्गमें देकर किया है. इस पाठशालाके लिये कई विद्वानोंकी सम्मति लेकर “ बावु पन्नालाल आत्म जैन पाठशालाकी योजना" ऐसे नामसे मेरी तरफसें एक योजना पत्र तयार किया है. जैनधर्म अनादि होने की पुष्टीमें यह सिद्ध है कि मूल आर्य वेदोंके छत्तीस उपनिषद् जो जैनशैली अनुसार जैनोंमें मौजूद है, जिसपरसे और दूसरे संजोगोंसे यह बात सबूत होती है कि आधुनिक वेद कोई नयेही वेद हैं. जैन इतिहास कहता है कि पहेले तीर्थंकर श्रीऋषभनाथके पुत्र भरत चक्रवतीन अपने पीताके उपदेशसे गृहस्थ अर्थात् श्रावक धर्मके निरूपक चार वेद श्रावक ब्राह्मणोंके पढनेके वास्ते रचे. ये वेदोंके नाम १ "आत्म" शब्दसे यह भावार्थ है कि स्वर्गवासी बाबु जीका यह निश्चय था कि महाराज श्री आत्माराम जीके नामसें एक पाठशाळा (जैन-कॉलेज) स्थापन करके यह परम उपकारी सद्गुरुका नाम अमर रखना. For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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