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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४३ चतुर्थस्तम्भः । " दोषरहित, १ सारवत् - बहुपर्याय अर्थकरके संयुक्त, गोशब्दवत् २, हेतुयुक्तम् - अन्वयव्यतिरेक लक्षण, हेतुओंकरके संयुक्त, ३, अलंकृतम्उपमादि अलंकारोंकरके संयुक्त, ४, उपनीतम् - उपनयनिगमनसंयुक्त, ५, सोपचारम् - ग्राम्यवचनकरके रहित, ६, मितम्-वर्णादिपरिमाणसंयुक्त, ७, मधुरम् -सुनने में मनोहर ८॥ इति ॥ ३३ ॥ हितैषी यो नित्यं सततमुपकारी च जगतः कृतं येन स्वस्थं बहुविधरुजार्त्तं जगदिदम् || स्फुटं यस्य ज्ञेयं करतलगतं वेत्ति सकलं प्रपद्यध्वं संतः सुगतमसमं भक्तिमनसः ॥ ३४ ॥ व्याख्या - जो देव, जगद्वासि जीवोंका नित्य सदाही हितकारी है, और निरंतर उपकारी है, जिसने बहुविध अनेक प्रकारके कर्म रोगकरी पीडित इस जगत्को उपदेशद्वारा स्वस्थ करा है, और जिसके ज्ञानमें सर्व ज्ञेय पदार्थ करतलगत आमलेकीतरें प्रकट हो रहे हैं, और जो सकलपदार्थांको जानता है, हे संतजनो ! ऐसे असदृश अर्थात् जिसके बराबर कोई नहीं है - ऐसे - सुगत भगवान् अर्हनको भक्तिमनसें अंगीकार करो, और तिसको परमेश्वर मानके शुद्ध मनसें पूजो-सेवो ॥ ३४ ॥ असर्वभावेन यदृच्छया वा परानुवृत्त्या विचिकित्सया वा ॥ ये त्वां नमस्यन्ति मुनीन्द्रचद्रास्ते प्यागरी संपदमाप्नुवन्ति ॥३५॥ व्याख्या -- यथार्थस्वरूपके विना जाण्या, अथवा संपूर्णभक्ति विना, वा यदृच्छा स्वतः प्रवृत्ती, वा परकी अनुवृत्ति देखादेखी सें परकी दाक्षिण्यतासें, वा विचिकित्सा फलके संशयसें, हे मुनींद्रोंमें चंद्रमासमान मुनींद्रचंद्र भगवन् अर्हन् ! जे कोइ तेरेको नमस्कार करते हैं, वे पुरुषभी देवतायोंकी सुखादिसंपविभूतीकों प्राप्त होते हैं, हे जिन ! तेरे यथार्थ (सत्य) शासन के माननेवालोंका तो क्याही कहना है ? ॥ ३५ ॥ * गोशब्दो हि बहुपर्यायो बह्वर्थ इतितात्पर्य - दिशि दृशि वाचि जले भुवि दिवि वजेऽसौ पशौच गोशब्दइतिवचनादेवं सूत्रमपि वह्नर्थयुक्तं विधेयमिति तथा किरणे सूर्ये चंद्रे वायौ ऋषभनाभौषधौ सौरभेय्यां वाणे मातरीत्यादावपि गोशब्दो विज्ञेयः ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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