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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १३८ तत्त्वनिर्णयप्रासादइंद्रभी सहस्र भगकरके बुरे शरीरवाला हुआ, सो ऐसे-पूर्वकालमें गौसममुनिकी अहल्यानाम भार्या थी, तिसके रूपऊपर मोहित होके तिसकी कुटीमें जाके इंद्र तिसकेसाथ भोग करताभया, इतनेमें गौतमजी कुटीके बाहिर आगए, इंद्र तिसके भयसें मार्जारका रूपकरके स्वर्गमें जाता हुआ. गौतमऋषिने विचारा कि, यह कोइ सामान्य बिडाल नहीं है, इत्यादि विचारकरके जाना कि, यह तो इंद्र है. तब शाप देके इंद्रको सहस्र भगवाला कर दिया, और अपने छात्रोंको तिसकेसाथ भोग करनेवास्ते भेजता हुआ, पीछे देवताओंने ऋषिकों प्रसन्न करा, तब गौतमने इंद्रको सहस्रभगकी जगे सहस्रनेत्रवाला करदिया-इति ॥ ३१॥ बन्धुर्न नः स भगवानरयोऽपि चान्ये साक्षान्न दृष्टतर एकतमोऽपि चैषाम् ॥ श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग्विशेषं वीरं गुणातिशयलोलतया श्रिताः स्म ॥ ३२॥ व्याख्या-सो भगवान् श्रीवीर, हमारा भाइ नहीं है; और अन्य ब्रह्मा, विष्णु, महादेवादि देवते हमारे शत्रु नहीं हैं; और न इन पूर्वोक्त सर्व देवोंमेंसे किसी एककोंभी प्रत्यक्षसे अतिशयकरके हमने देखा है, परंतु पृथग् विशेषवाले वचनको और चरितको अर्थात् जैनागमानुसार श्रीमहावीरके वचन, और तिनका चरित सुणके, और अनंतर काव्यमें लिखेहुए पुराणानुसार अन्यदेवोंके वचन, और चरित सुणके, पृथक् २ तिन चरितोंका विशेष विचार करके, गुणातिशयकी चंचलता करके, हम श्रीमहावीर कोही आश्रित हुए हैं ॥ ३२ ॥ नास्माकं सुगतः पिता न रिपवस्तीर्थ्या धनं नैव तै दत्तं नैव तथा जिनेन न हृतं किंचित्कणादादिभिः।। किं त्वेकांतजगद्धितः स भगवान् वीरो यतश्चामलम् वाक्यं सर्वमलोपहर्त च यतस्तद्गक्तिमंतो वयम् ॥ ३३ ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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