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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२४ तत्त्वनिर्णयप्रासादयेवै नेया विनयनिपुणैस्ते क्रियन्ते विनीता ___ नावैनेयो विनयनिपुणैः शक्यते संविनेतुम् ॥ दाहादिश्यः समलममलं स्यात् सुवर्ण सुवर्ण नायस्पिडो भवति कनकं छेददाहक्रमेण ॥१७॥ व्याखा-जे विनयवंत विनयमें निपुण पुरुष हैं, तिनकोंही विनयनिपुण पुरुषोंहीने विनयवंत करणेकों समर्थ होइए हैं, परंतु अविनीतप्रकृतिवालेकों विनयवंत करणेमें समर्थ नहीं होइए हैं. दृष्टांत-जैसें भले वर्णादिवाले सुर्वणकोंही दाह ताडन छेदादिकरके अमल (निर्मल) सुर्वण सिद्धकरशकीए हैं, अर्थात् समलसुर्वणही दाहादिकों करके निर्मल सुर्वण होता है, परंतु छेददाहादिक्रमकरके लोहका पिंड, कनक (सुर्वण) नहीं होता है, ऐसेंही जे योग्य पुरुष हैं, वेही उपदेशकों सुणके शुभपरिणामांतरको प्राप्त होसक्ते हैं, अयोग्य पुरुष नहीं होसक्ते हैं. ॥१७॥ अथ बाह्य पदार्थका लक्षण कहते हैं. आगमेन च युक्त्या च योर्थः समभिगम्यते परीक्ष्य हेमवद्राह्यः पक्षपाताग्रहेण किम् ॥ १८॥ व्याख्या-आगमकरके और युक्तिकरके जो अर्थ-पदार्थ सिद्ध होवे, सोही दाहताडनछेदादिक्रमकरके सुर्वणकीतरें परीक्षा करके ग्रहण करने योग्य है, अर्थात् परीक्षक जनोंकों परीक्षापूर्वक सोही ग्रहण करना चाहिये कि, जो पदार्थ परीक्षामें पक्का हो जावे, किंतु पक्षपात आग्रहकों धारण न करना चाहिये. क्यों कि, पक्षपात-जूठा आग्रह करणेसें क्या लाभ है ? कुछभी लाभ नहीं हैं ॥ १८॥ अब जो विना विचारे तत्त्वपदार्थ ग्रहण करता है, सो पीछेसें पश्चात्ताप करता है, सोइ दिखाते हैं. ___ मातृमोदकवद्वाला ये गृहन्त्य विचारितम् ॥ ते पश्चात्परितप्यन्ते सुवर्णग्राहको यथा ॥ १९॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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