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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थस्तम्भः । न्यरूपसे एकही केवल जिनोंत्तमरूप परमेश्वर है, और व्यक्तिरूपकरके अनंत आत्मा एक परमब्रह्म परमेश्वरपदमें विराजमान होनेसें अनेक रूप है, अथवा द्रव्यार्थे एक आत्मा होनेसें एकरूप है, और पर्यायार्थिकनयके मतसें ज्ञानदर्शनचारित्रादि अनंत पर्यायांकरके अनंत रूप है, “उतंच ज्ञाताधर्मकथांगे स्थापत्यासुतमुनिशुकपरिब्राजकसंवादे - सुया एगे विअहं दुवे विअहं अगे विअहं - इत्यादि - हे शुक ! मैं एकभी हूं, दो रूपभी हूं, अनेक रूपभी हूं - इत्यादि - " तिन एकानेकरूपवाले जिनोत्तमकों; फेर कैसे जिनोत्तमकों ? ( केवलरूपं ) केवल शुद्धस्वरूप सर्वकर्मकृतउपाधिकरके विनिर्मुक्त रहितकों ॥ १ ॥ अथ ग्रंथकार परिषत् -सभाकी परीक्षा करनी कहते हैं. भव्याभव्यविचारो न हि युक्तोऽनुग्रहप्रवृत्तानाम् ॥ कामं तथापि पूर्व परीक्षितव्या बुधैः परिषत् ॥ २ ॥ ११९ व्याख्या - ( भव्याभव्यविचारः ) भव्याभव्य अच्छे और बुरे पुरुषोंका विचार (अनुग्रहप्रवृत्तानाम् ) अनुग्रह बुद्धिकरके प्रवृत्त होए संत जनोंकों (नहि - युक्तः) करना युक्त - उचित नही है ( कामं ) यह कथन यद्यपि सम्मत है ( तथापि ) तोभी ( बुधैः ) बुद्धिमानोंने (पूर्व) प्रथम (परिषत् ) श्रोताजनकी ( परीक्षितव्या) परीक्षा करणी उचित है ॥ २॥ अथ ग्रंथकार उपदेशके अयोग्य परिषत् के लक्षण कहते हैं. For Private And Personal वज्रमिवाभेद्यमनाः परिकथने चालनीव यो रिक्तः ॥ कलुषयति यथा महिषः पूनकवदोषमादत्ते ॥ ३ ॥ व्याख्या- -जो पुरुष (वज्रं - इव) वज्रवत् (अभेद्यमनाः ) अभेद्य मनवाला होवे, अर्थात् उपदेश श्रवणकरके जिसके मनमें किंचित् मात्र भी शुभ परिणामांतर न होवे, मुद्रशेलवत्; और (यः) जो ( परिकथने) उपदेशादि - केविषे ( चालनी - इव) चालनीकी तरे (रिक्तः) रिक्त हो जावे, जैसें चालनीमें जल डालीए तब सर्व जल निकल जाता है, तैसें जो श्रोता व्याख्यान श्रवण करता है, और तत्काल भूलता जाता है, सो चालनीकी तरे रिक्त जानना. २. और ( यथा ) जैसें ( महिषः ) भैंसा तलावमें पानी
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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