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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीयस्तम्भः। उत्तरपक्षः-तब तो ईश्वर, सर्व, अनादि, मुक्त, सदा शिवरूप न रहा, परं, देश मात्र मुक्त, और देशमात्र सोपाधिक रहा. तब एकाधिकरणईश्वरमें परस्पर विरुद्ध, मोक्ष और बंधका होना सिद्ध हुआ, सो तो दृष्टष्टबाधित है. छायातपवत्. विशेष इसका समाधान श्रुतिसहित आगे करेंगे. तब तो, ईश्वरकों सदा मुक्त, कूटस्थ, नित्य, देहादिरहित, सदा शिवादि न कहना चाहिये। ___ पूर्वपक्षः-ईश्वर तो देहादिसें रहित, सर्वव्यापक और सर्व शक्तिमान है, इसवास्ते ईश्वर अवतार नहीं लेता है, परंतु सृष्टिकी आदिमें चार ऋषियोंकों अग्नि १, वायु २, सूर्य ३ और अंगिरस ४ नामवालोंकों, वेदका बोध ईश्वर कराता है. उत्तरपक्षः-यद्यपि यह पूर्वोक्त कहना दयानंदस्वामीका नवीन स्वकपोलकल्पित गप्परूप है, तथापि इसका उत्तर लिखते हैं. प्रथम तो, ईश्वर सर्वव्यापक होनेसें अक्रिय है, अर्थात् वो कोइभी क्रिया नहीं करसक्ता है, आकाशवत् ; तो फेर ऋषियोंकों वेदका बोध कैसे करा सकता है पूर्वपक्षः-ईश्वर अपनी इच्छासें वेदका बोध करता है. उत्तरपक्षा-इच्छा जो है, सो मनका धर्म है, और मन देह विना होता नहीं हैं, ईश्वरके देह तुमने माना नहीं है, तो फेर, इच्छाका संभव ईश्वरमें कैसे हो सकता है? पूर्वपक्षः-हम तो इच्छानाम ईश्वरके ज्ञानकों कहते हैं, ईश्वर अपने ज्ञानसें प्रेरणा करके वेदका बोध कराता है. उत्तरपक्ष:-यहभी कहना मिथ्या है, क्योंकि, ज्ञान जो है, सो प्रकाशक है, परंतु प्रेरक नहीं है, ईश्वरमें रहा ज्ञान, कदापि प्रेरणा नही करसक्ता है, तो फेर किसतरें ऋषियोंकों वेदका बोध कराता है? पूर्वपक्षः-पूर्वोक्त ऋषि, अपने ज्ञानसेंही ईश्वरके ज्ञानांतर्गत वेदज्ञानकों जानके, लोकोंकों वेदोंका उपदेश करते हैं. उत्तरपक्ष:-यहभी कथन ठीक नहीं है, क्यों कि, जब ऋषि अपने ज्ञानसें ईश्वरके ज्ञानांतर्गत वेदज्ञानकों जानते हैं, तो वो वेदज्ञान ईश्वरके ज्ञानमें व्यापक है ? वा किसीजगे ज्ञानमें प्रकाशका पुंजरूप हो रहा For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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