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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीयस्तम्भः । ८९ स्तुका स्वरूप ( दिशन् ) कथन करता हुआ ( तादृशं ) तैसी (कौशलं ) कौ - शलता - चातुर्यताकों ( न ) नही ( आश्रितोसि ) आश्रित प्राप्त हुआ है, जैसी चातुर्यताको असद्रूप पदार्थकों, सद्रूप कथन करते हूए परवादी प्राप्त हुए हैं, अर्थात् जीव 9, अजीव २, पुण्य ३, पाप ४, आस्रव ५, संवर ६, निर्जरा ७, बंध ८, और मोक्ष ९, यह नव पदार्थ है. तिनमें जो जीव है, सो ज्ञानादि धमोंसें कथंचित् भिन्नाभिन्न रूप है, शुभाशुभ कर्मों का कर्त्ता है, अपने करे कर्मों का फल अपने अपने निमित्तों द्वारा भोक्ता है, नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव रूप चार गतिमें अपने कर्मोके उदयसें भ्रमण करता है, सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप साधनोंसें निर्वाण पदकों प्राप्त होता है, चैतन्य अर्थात् उपयोगही जिसका लक्षण है, अपने कर्मजन्य शरीर प्रमाण व्यापक है, द्रव्यार्थिक नय मतसें नित्य है, पर्यायार्थिक नयके मतसें अनित्य हैं, द्रव्यार्थे स्वरूपसें अनादि अनंत है, पर्यायार्थे सादि सांत है, और कर्मोंके साथ प्रवाहसें अनादि संयोग संबंधवाला है, इत्यादि विशेषणोंवाला जीव है. || १|| " For Private And Personal - चैतन्यरहित, अज्ञानादि धर्मवाला, रूप, रस गंध, स्पर्शादिकसें भिन्नाभिन्न, नरामरादि भवांतर में न जानेवाला, ज्ञानावरणादि कर्मोंका अकर्त्ता, तिनोंके फलका अभोक्ता, जड स्वरूप, इत्यादि विशेषणोंवाला रूपी, अरूपी, दो प्रकारका अजीव है तिनमें परमाणुसें लेके जो वस्तु वर्ण गंध रस स्पर्श संस्थानवाला दृश्य है, वा अदृश्य है, सो सर्व रूपी अजीव है. तथा धर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, और काल, ये चारों अरूपी अजीव है. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, यह तीनों द्रव्यसें एकैक द्रव्य है, क्षेत्र धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यह दोनों लोकमात्र व्यापक है, आकाशास्तिकाय, लोकालोक व्यापक है, कालसें तीनों ही द्रव्य अनादि अनंत है, और भावसें वर्ण गंध रस स्पर्शरहित, और गुण धर्मास्ति काय चलनेमें सहायक है, और अधर्मास्तिकाय स्थितिमें सहायक है, और आकाशास्तिकाय सर्व द्रव्यों का भाजन विकाश देने में सहायक है. काल, द्रव्यसें एक वा अनंत है, क्षेत्र अढाइ द्वीप प्रमाण व्यावहारिक काल है, कालसें अनादि अनंत है, भावसें वर्ण गंध रस १२
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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