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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीयस्तम्भः । ७९ नगरीमें पहुंचानेको सार्थवाहतुल्य है," ऐसी दुंदुभि अर्थात् आकाशमें दिव्यानुभावकरके कोडोंही देववाजिंत्र बजते हैं. ॥ ७ ॥ छत्तं-तीन भवनमें परमेश्वरत्वके ज्ञापक, शरत्कालके चंद्रमा और मुचकुंदके समान उज्वल मुक्ताफलकी मालाकरके विराजमान, ऐसें तीन छत्र भगवान्के मस्तकोपरि छत्रातिछत्रप्रत्ये धारण करते हैं. यह आठ प्रातिहार्य श्री जिनेश्वर भगवत्संबंधि जयवंते वर्तों ! इन पूर्वोक्त अष्ट प्रातिहार्यकरके संपूर्ण है, और पुण्य पाप उपलक्षणसें नव तत्व जाणता है तिस हेतुसे नकार अंत्याक्षर कहते हैं. यह अर्हन् शब्दके अक्षरोंका अर्थ है. ॥ ४३॥ अब स्तवनकर्ता पक्षपातसे रहित होके अंतका आर्यावृत्त कहते हैं. भवबीजारजनना रागाद्याःक्षयमुपागता यस्य ॥ ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥४४॥ इति श्रीमद्धेमचंद्रसूरिविरचितं श्रीमहादेवस्तोत्रम् || व्या०-संसाररूप बीजके चार गतिरूप अंकुरके उत्पन्न करनेवाले राग, द्वेष, अज्ञानादि अठारह दूषण जिसके क्षयभावको प्राप्त हुए हैं, तिप्तका नाम ब्रह्मा हो, वा विष्णु हो, वा हर, (महादेव) हो, वा जिन हो, तिसकेतांइ नमस्कार हो ॥४४॥ इति श्रीम० श्रीमहादेव स्तोत्रम् || इन पूर्वोक्त विशेषणोंवाले ब्रह्मा, विष्णु, महादेवकोही जैनमतवाले अर्हन् , अरिहंत, अरुहंत, अरह, जिन, तिर्थकर, इत्यादि नामोसे मानते हैं. क्योंकि, जैनमतमें अरिहंत है, सोही ब्रह्मा, विष्णु, महादेव है. "यदुक्तं श्रीमन्मानतुझसूरिप्रवरैः--' बुद्धस्त्वमेव विबुधाचिंतबुद्धिबोधात्वं शंकरोऽसि अवनत्रयशंकरत्वात् ॥ धातासि धीरशिवमार्गविधेर्विधाना यक्तं त्वमेव भगवन पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥ टीका॥अर्थान्तरकरणेनान्यदेवनाम्ना जिनं स्तुवन्नाह । बुद्धस्त्वमिति || हे नाथ ! त्वमेव बुद्धः असि वर्तसे । असीति क्रियापदं । कः कर्ता । त्वं । For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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