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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीयस्तम्भः। रागी द्वेषी देव मुक्तिकवास्ते नहीं होते हैं. यदुक्तं ॥ “ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादिरागाद्यङ्ककलङ्गिन्ताः ।। निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ॥१॥ नाट्याट्टहाससंगीताद्युपप्लवविसंस्थुलाः॥ लंभयेयुः पदं शान्तं प्रसन्नान् प्राणिनः कथम् ||२॥” इतिकलिकालसर्वज्ञश्रीमद्धेमचंद्रसूरिकृतयोगशास्त्रेयद्यपि इन श्लोकोंका अर्थ जैनतत्वादर्श ग्रंथमें लिखा है तथापि भव्य जीवोंके उपकारार्थ लिखते हैं. जिस देवकेपास स्त्री होवे, तथा तिसकी प्रतिमाकेपास स्त्री होवे, क्यों कि, जैसा पुरुष होता है, उसकी मूर्ति भी प्रायः वैसीही होती है. आजकाल सर्व चित्रोमें वैसाही देखनेमें आता है. सो मूर्तिद्वारा देवकाभी स्वरूप प्रगट हो जाता है. तथा शस्त्र, धनुष्य, चक्र, त्रिशूलादि जिसके पास होवे, तथा अक्षसूत्र जपमालादि आदि शब्दसे कमंडलु प्रमुख होवे, फेर कैसा वो देव है ? रागद्वेषादि दूषणोंका जिनमें चिन्ह होवे ? क्योकि, स्त्रीकों जो पास रखेगा वो जरूर कामी और स्त्रीसें भोग करनेवाला होगा. इस्से अधिक रागी होनेका दूसरा कौनसा चिन्ह है ? इसी कामरागके वश होकर कुदेवोंने परस्त्री, स्वस्त्री, बेटी, माता, बहिन, और पुत्रकी वधू, प्रमुखसे अनेक कामक्रीडा कुचेष्टा करी है. और इसीका नाम लोकोंने भगवान्की लीला धारण किया है!!! __ अब जो पुरुषमात्र होकर परस्त्री गमन करता है, उसको आज कोलके मतावलंबियोंमेंसे कोइभी अच्छा नहीं कहता तो, फेर परमेश्वर होकर जो परस्त्रीसे कामकुचेष्टा करे, उसके कुदेव होनेमें कोईभी बुद्धिमान् शंका कर सक्ता है? नहीं. और जो अपनी स्त्रीसे काम सेवन करता है, और परस्त्रीका त्यागी है, उसकोभी परस्त्रीका त्यागी धर्मी गृहस्थलोक कह सक्ते हैं, परंतु उसको मुनि वा ऋषि वा ईश्वर कभी नहीं कहे सकेंगे. क्योंकि, जो आपही कामाग्निके कुंडमें प्रज्वलित हो रहा है, तिसमें कभी ईश्वरता नहीं हो सक्ती, इस हेतुसे जो राग रूप चिन्ह करके संयुक्त है, सो देव नहीं हो सकता है, पुनः जो द्वेषके चिन्हकरके संयुक्त है, वोभी देव नहीं हो सक्ता है. द्वेषके चिन्ह शस्त्रादिकोंका धारण करना, क्योंकि, जो शस्त्र, धनुष्य, चक्र, त्रिशूल For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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