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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४४ तत्वनिर्णयप्रासादआधे शरीरको स्त्रीरूप और आधेको पुरुषरूप करते भये. इस सावित्रीको शतरूपा कहते हैं. और इसीको गायत्री और ब्रह्माणी भी कहते हैं. फिर वह ब्रह्माजी अपने देहसे उत्पन्न हुई उस स्त्रीकों अपनी आत्मजा (पुत्री) मानने लगे. तदनंतर उसको देखकर कामदेवके बाणोंसें महापीडित हुए ब्रह्माजी आश्चर्यपूर्वक यह कहने लगे कि, अहो बडा आश्चर्य है कि, इसका कैसा सुंदर चित्तरोचक रूप हैं. फिर वसिष्ठादिक जो ब्रह्माके पुत्र थे, वह उसको अपनी बहन समझने और कहने लगे. और ब्रह्माजी सबको त्याग कर उसके मुखकीही ओर देखने लगे. अर्थात् उस नम्रमुखी सावित्रीके रूपको वारंवार देख कर कहने लगे कि, इसका रूप कैसा आश्चर्यकारी सुंदर है. इसके पीछे वह सुंदर रूपरंगवाली सरस्वती अपने पिताकी प्रदक्षिणा करती भई. उस समय पुत्रोंसे लज्जित होकर ब्रह्माजीका मुख उसके देखनेकी इच्छाकरके दाहिनी ओरसें पीला हो गया, और ओष्ट भी फुरने लगे; तब तो आश्चर्य करनेसे अपने मुखकों पीछे करलिया. इसके अनंतर कामदेवकी पीडालें युक्त होकर ब्रह्माजीका मुख महाकामातुरतासें उसके देखनेकों आश्चर्यिंत होके शोभित हुआ. उस समयपरही सरस्वतीकेही समानरूपवाली एक दूसरी स्त्री उत्पन्न हो गई. और जो कि ब्रह्माजीने सृष्टि रचनेकेलिये बडा अरुण तप किया था, वह ब्रह्माजीका किया हुआ तप अपनी पुत्रीके संय भोग करनेकी इच्छा करनेसें नष्ट हो गया था, इस हेतुसे ब्रह्माजीके उपरकी ओर पांचवां मुख उत्पन्न होता भया. तव उस समर्थ ब्रह्माजीने उस पांचवें मुखको अपनी जटाओंसे ढककर अपने पूर्वोक्त पुत्रोंसे कहा कि, तुम देवता, राक्षस और मनुष्यादि सब प्रकारकी प्रजाको रचो. उनकी आज्ञा पातेही वह सव ब्रह्माके पुत्र अनेक प्रकारकी प्रजाओंकी सृष्टि रचनेको चले गये. उनके चलेजानेके पीछे कामके बाणोंसे महापीडित बमाजी नम्रमुखी और अनिंदित अपनी शतरूपानाम स्त्रीको ग्रहणकरके बडी लज्जासे युक्त होकर देवताओंके सो वर्षपर्यंत अन्य अज्ञानी मनुष्योंकेत्तमान उससे रमण करते भये-फिर वहुत कालपीछे उसको मनु नाम पुत्र हुमा-इत्यादि तथा अध्याय चौथे अध्यायमें लिखाहै कि, ब्रह्माजी वेदकी For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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