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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीयस्तम्भः। महाज्ञानं भवेद्यस्य लोकालोकप्रकाशकम् ॥ महादया दमो ध्यानं महादेवः स उच्यते ॥३॥ भाषा-बडा ज्ञान, अर्थात् केवलज्ञान, लोकालोकके स्वरूपका प्रकाशक होवे, जिसकों और जीवनमोक्षावस्थामें महादया, महादम और महाध्यान, शुक्लध्यान होवे जिसकों सो महादेव कहा जाता है ॥३॥ महांतस्तस्करा ये तु तिष्ठन्तः स्वशरीरके ।। निर्जिता येन देवेन महादेवः स उच्यते ॥४॥ भाषा-जे बडे भारी तस्कर छद्मस्थावस्थामें अपने शरीरमें रहे हुए अष्टादश (१८) दूषणरूप, वे सर्व जिस देवने अपुनर्भवरूपसे जीते हैं, सो महादेव कहा जाता है ॥ ४ ॥ रागद्वेषौ महामल्लौ दुर्जयो येन निर्जितौ ॥ महादेवं तु तं मन्ये शेषा वै नामधारकाः ॥५॥ भाषा-राग अभिष्वंगरूप, द्वेष अप्रीतिरूप, ये दोनो महामल्ल दुर्जय हैं; जीतने कठिन हैं. परं जिसने ये पूर्वोक्त दोनो मल्ल जीते हैं, तिसकों तो मैं सच्चा महादेव मानता हूं. और जो रागी द्वेषीकों लोक महादेव मानते हैं, सो नाममात्रसें महादेव है; नतु यथार्थ स्वरूपसें. होलिके बादशाहवत् ॥५॥ शब्दमात्रो महादेवो लौकिकानां मते मतः ॥ शब्दतो गुणतश्चैवार्थतोपि जिनशासने ॥६॥ भाषा-शब्दमात्र (कथनमात्र) महादेव तो लौकिक मतवालोंके मतमें मान्य है, और जैसा शब्द तैसाही अर्थ होवे, अर्थात् शब्दसें जो अर्थ निकले तिस अर्थरूप गुणसंयुक्त जो होवे, तिसकों जैन मतमें महादेव मानते हैं ॥ ६॥ शक्तितो व्यक्तितश्चैव विज्ञानं लक्षणं तथा ॥ मोहजालं हतं येन महादेवः स उच्यते ॥ ७॥ भाषा-शक्ति क्षायकज्ञानलब्धिरूप और व्यक्ति ज्ञानउपयोग लक्षण, For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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