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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्वनिर्णयप्रासादऔर तिनकी मूर्ति निरुपाधिक प्रशांतरूप होनेसें प्रशांत दर्शनवाली है. क्योंकि, जो त्रिभुवनमें प्रशांतरूप परिणामवाले परमाणु भगवान्के शरीरको लगे हैं, तैसें परमाणु तितनेही जगत्में हैं, इसवास्ते भगवान्के प्रशांतरूप समान अन्यरूप किसीका भी नहीं है. तथा तिनकी मूर्ति जैसी प्रशांताकारवाली है, तैसी जगत्में किसी भी देवकी नहीं है, इस वास्ते भगवान्का प्रशांत दर्शन है. और सर्वभूत प्राणियोंको अभयदान देनेवाला है, “ अभय दयाणं इति वचनात्" क्योंकि, विद्यमान भगवानके स्वरूप और तिनकी मूर्तिके खरूपमें कोईभी वस्तु भय देनेवाली नही है. जिसके हाथमें त्रिशूल, चक्र, परशु, तलवार आदि शस्त्र होवेंगे, वो देव अभय देनेवाला नहीं है, परंतु किसी वैरीके भयसें वा किसीके मारनेवास्ते शस्त्र धारण करे हैं. भगवान्में पूर्वोक्त दूषण नही हैं; इसवास्ते अभयदानका दाता है. और मांगल्यरूप है. “ अरिहंता मंगलं इति वचनात् ” और प्रशस्त मला है, प्रशस्त वस्तुरूप होनेसें. इस करके पूर्वोक्त विशेषणोंवाला होनेकरके शिव कहीये है. ॥१॥ महत्वादीश्वरत्वाच्च यो महेश्वरतां गतः॥ रागद्वेषविनिर्मुक्तं वंदेऽहं तं महेश्वरम् ॥२॥ भाषार्थः-प्रथम श्लोकमें शिवका खरूप कथन करा, अथ महेश्वरका खरूप कहते हैं. बडा होनेसें और ईश्वर होनेसें जो महेश्वरताकों प्राप्त हुआ है, तिहां महत् शब्दका अर्थ बड़ा है, शुद्ध स्वरूप शुद्ध ज्ञानादि गुणोंसें, बड़ा होनेसें और सर्व देवताओंका ठाकुर (पूज्य) अलंघनीय आज्ञावाला और सर्वका नायक, अग्रेश्वरी होनेसें ईश्वर. क्योंकि, जो चैतन्य जड पदार्थ जगत्में है, वे सर्व तिसकी स्याद्वाद मुद्रारूप आज्ञाका उल्लंघन नही कर सक्ते हैं. और जो उल्लंघन करता है, सो तीन कालमें भी वस्तुखरूपको प्राप्त नहीं होता है. उक्तं च श्रीमद्धेमचंद्रसूरिप्रवरैः ।। आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥१॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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