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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्वनिर्णयप्रासाद. श्री महावीर स्वामीके शासनकी रक्षा करनेवाले मातंग यक्ष देवता और सिद्धायिका देवीकी, विनोंकी शांतिके लिये, स्तुति करता हुँ । ७ ॥ अन्यानपि सुरान् स्मृत्वा जैनधर्मकतत्परान् तत्त्वनिर्णयप्रासादग्रन्थोऽस्माभिः प्रतन्यते ॥८॥ जैन धर्ममें तत्पर सम्यग् दृष्टि दुसरे देवोंका स्मरण करके, तत्वनिर्णय प्रासाद नामा ग्रंथको हम विस्तार करते हैं ॥ ८॥ (७. ८. यह दो श्लोकमें सम्यग् दृष्टि देवोंका स्मरण करके शास्त्रका प्रारंभ सूचन किया है.) अथ प्रथमस्तम्भप्रारम्भ: विदित होवे के संप्रति कालमें कितनेक लोक संसारिक विद्याका अभ्यास करके अपने आपको सर्वसें अधिक अकलवंत मानने लग जाते हैं, और ऐसे घमंडमें बूट पहने फिरते हैं कि घोडोंकों भी मात करते हैं. और कितनेक तो नास्तिकही बन जाते हैं. कितनेक नवीन मिथ्यामतके पक्षी हो जाते हैं. परंतु पक्षपात छोडके सत्य धर्मका निश्चय करके स्वीकार करना दुर्लभ है. हम बहुत नम्रतासें सर्व मतवालोंसें विनती करते हैं कि, हे प्रिय मित्रो! यद्यपि अपने अपने पितामह प्रपितामहादिकी परंपरायसे अपने अपने कुलमें जो जो धर्मव्यवहार चला आता है, तिसकोंही सत्यधर्म मान रहे हैं, चाहे वो असत्यही होवे; और अन्य धर्मावलंबियोंकों मिथ्या मतवाले मान रहे हैं, चाहो वो सत्य मतही होवे; परं यह सुज्ञ जनोंका लक्षण नही है. क्योंकि, इस भरतखंडमें जैनमत, वेदमत और बौद्धमत ये तीन मत बहुत कालसें प्रचलित हैं. तिनमेसें वेदमतवाले कहते हैं, कि हमारा वेदमतही सबसे पुराना है ; इसवास्ते सत्यधर्मका प्रतिपादक है. और जैनमतवाले अपने मतकों सर्व मतोंसें प्राचीन मानते हैं; ऐसेही बौद्धमतवाले मानते हैं. इन तीनो मतोंमेंसे वेदकी रचनाकों यूरोपियन पंडित पुरानी मानते हैं. For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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