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अज्ञात सूरिविरचिता
गुरु भइ भावदोसो, न तु किंतू पमायदोसोऽयं । तो अमदिणे वालअपत्यगदिट्ठतओ भणिओ ॥९८॥ मा वहसु वच्छ ! गव्वं, अहयं पंडिओ इहं वणे । आसवन्नुमयाओ, तरतमजोगेण महविभवा ॥ ९९ ॥ (५) इअ अच्छेrयचरिओ, काraat arts faris | सीमंधर जिणपासे, इओ निगोए हरी सुणिउ ॥१००॥ पुच्छ भयवं भरहे वि, को वि एए जिए बिआरेह ? | पहु भणs कालगज्जो, जहाऽरिहं तं विआरेइ ॥ १०१ ॥ तो हरि बंभणरूवं, काउमिहानम्म पुच्छर निगोए । ' गोला य असंखिज्जा' इचाइ गुरु वि साहे ||१०२ ||
च्छिमोऽणसणं ।
भण मह किचिअ आउं तो • नि अयरे किं चूणे, तस्स
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१ त्रुटितमिह पत्रमर्द्धम् ।
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॥१०३॥
आउ गुरु भगइ | वं ॥ १०४ ॥
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निरser विहु काले नाणं विप्फुर होउ तुह नाह || १०५ ।। जेणुन्नई तर पत्रयणस्स, संघस्स कारणे विहिआ । ॥१०६॥ इय थोऊण सुरिंदो, सुमरितो सुरि-निम्मलगुणोहं । आका ॥१०७॥
तो कालगरी विहु, जाणित्ता नियआउ - परिमाणं । संलेहणं विहे [ अणसणविहिणा दिवं पत्ता ] ||१०८||
[कालिका]चार्यकथा समाप्ता ॥
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