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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२९ कालिकाचार्यकथा। सुवर्णपुरि शिष्यानुशिष्य श्रीसागरचंद्रसूरिनइ स्थानिक पुहता छह । इस्यु सांभली ते सवे भव्य श(शि)ष्य रुलीयाल्य थ्या । तेह नगरभणी चाल्या । केतले दीहे नगरि पुहता । ते सागरचंद्रसूरीस्व(बोरे सांभलिउं जु गुरना गुरु श्रीपूज्य गुरु पाधारई छई। ते श(शि)ष्य प्रहृष्ट इतां वृद्ध आगलि कहिवा लागा । ति वारइं वृद्धिइ कहिउं भम्हे पणि सांभलिउँ । पणि ते महात्मा तणओ जि संघात छह गुरु श्रीकालिकाचार्य आगई आव्या । साहमा जाता पाछा माव्या । ओ(उ)पाश्रिय गुरुर्ब(ब)हि भूमि तु आव्या देषी वे परिवार शिष्य वर्ग सहू साह{ ऊठिउं । ति वारई सागरचंद्रसूरि पूछउं । ए कुण तेहे शिष्ये कहिउँ । एह जि श्रीपूज्य गुरु जाणिवा । सागरचंद्रसूरि पगे लागी गुरु खमाव्या । मई मोटो अविनय कीधओ । भजाणिवह करी इ अज्ञात मूर्ष(ख) जे मई श्रीपूज्य प्रसाद गुरु न मोलल्या । इसी असमाधि लाज करिवा लागु । गुरे कहर संताप म धरि । दुक्ख म आणि । ए ताहरं कारण काई नहीं, ए कलिकालतण । महात्मा इण परी प्रतायुग कलिकाल तु लोक प्रसिद्ध छइ । अनई दूसम समय भागम प्रसिद्ध छइ इसिउं कहिउं छह । न देवे देवत्वं कपटपटवस्तापसजना जनो मिथ्याभाषी विरलतरदृष्टिश्च जळदः । प्रसङ्गो नीचानामवि(व)निपतयो दुष्टमतयो, जनाः] शि[ष्टा] नष्टा अहह ! कलिकालव्यतिकरु:(र.) ॥१४॥ महह इसिइं खेदिई कालिकाल व्यतिकर रौद्र हुओ । देवमाहि देवायतन कांई नहीं । तापस जन भणीई म(४)षि तेहइ ते कपटु नह विषइ पडवडा हा । जन लोक मिध्याभाषी जूठाबोला थ्या । मेहह ते कीहि वरसई किहिं न वरसई । नीचजन दुष्टतणी सिं(सं)गति हुई। राजान दुष्टमतिक हुआ। विशिष्ट उत्तम जन ते नाठा । ईणी परिई दूसम समय दुष्ट देषी(खी)इ । ईणइ भावि करी, अहो आचार्य तुझार दूषण नहीं, ए प्रमाद, दूषण । जीव सवे कालनई महात्मि करी प्रमादि पड्या रहहं । वालक प्रस्थ दृष्टांत तत्र कहो। शिष्यानुशिष्य ते प्रतिबोधी गुरु श्रीकालिकाचार्य प्रतिइं विनीत शिष्य इभा । तेहइं शिष्यं परिवर्या अन्यत्र विहारक्रम कीधमो॥ एकवार महाविदेह क्षेत्रि विहरमान जिन श्रीसीमंधरस्वामि कन्हा सौधर्मेन्द्रि इसी पृच्छा कीधी। भगवन(न्) जिनेंद्र ! हवडा जिस्या तम्हे निगोद जीव वखाण्या तिसी निगोद जीवतणी व्याख्यातणा जाण भरतक्षेत्रि को छह ! इसि इंद्रि पूछिह इंतइ स्वामी सीमंधरस्वामि केवलज्ञान भास्कर इते सौधर्मेन्द्र आगलि कहिउँ । श्रीकालिकाचार्य नव पूर्वना जाण छई। ते असी निगोद व्याख्या जाणइं। ए भरतक्षेत्र तणा लोक धन्य । अवापि कलिकालि निस्तीर्थ तीर्थकर रहित केवलज्ञान(नी) रहित संपूर्ण अवि(व)धि ज्ञानइ रहित मनःपर्यवज्ञान अढाईद्वीपतणा संज्ञीया पंचेंद्रिय जीवतणा मनोगत भाव जाणइं। इस्यूं मनःपर्यवज्ञान श्रुतज्ञानइ नहीं। एहवइ कालि दूसमि श्रीवीतरागतणा वचन मानई। जे धर्म प्रवर्तावई, जे सिद्धांततणा विचार कहई ते धन्य । इसी स्तुति श्रीसीमंधरस्वामि करई । इंद्र महाराज सांभलीनई भरति क्षेत्रि आविभो। वृद्ध ब्राह्मण जरा जीर्ण रूप करी आव्यु । अनइ गुरु श्रीकालिकाचार्य कन्हलि पछिओ स्वामिन् | निगोद जीव केहया छई ! केतला एक छई। ति वारई गुरु श्रीकालिकाचार्य भागम श्रुत निगोद व्याख्या कीधी । संख्यातीताः सन्ति गोलाः, गोलेऽसंख्या निगोदकाः । एकैकस्मिन् निगोदे च, सिदेभ्योऽनन्तजन्तवः ॥१५॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020798
Book TitleCollection of Kalka Story Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherSarabhai Manilal Nawab
Publication Year1949
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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