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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 286 स्वतंत्रता संग्राम में जैन उनका आजीवन चलता रहा। राजनीति की काली और धर्ममार्ग को छोड़ा नहीं। सादगी से जिया तथा कोठरी में से भैय्या जी उजले ही उजले निकले, यह स्वभाव में मितव्यता मूलतः रही। सचमुच आश्चर्य की बात है। तभी तो उनके निधन मेरा विश्वास स्वावलंबन और स्व-आश्रय में पर श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए श्री सुन्दरलाल पटवा रहा अत: बचत करके वृद्धावस्था के लिये कुछ संग्रह ने कहा था- 1957 और उसके बाद हम और वे रखा जो हुण्डियों में ब्याज पर नियोजित है। मेरे नाम राज्य विधानसभा में काफी समय तक आमने-सामने पर कोई मकान और जमीन नहीं है, अन्य भी कुछ बैठे। हम आंखों में अंजन डालकर उनकी कमियाँ नहीं है। अभी-अभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप खोजते रहे, लेकिन उनके खिलाफ कुछ भी हाथ में केवल नाम भर को एक मकान एम.आई.जी. ग्रुप नहीं लगा। राजनीति में ऐसे बहुत ही कम लोग मिलते में मेरे नाम पर लिया गया है। स्वामित्व के नाते मेरा हैं, जो काजल की कोठरी में रहकर भी अपने ऊपर उससे कोई संबंध नहीं है। कालिख की एक लकीर लगाए बिना साफ-सुथरे कुटुम्ब के लिए मेरा जीवन में जो योगदान बाहर निकल आते हैं।' रहा, उसको लेकर मुझे कुछ कहना नहीं है। सब भगवान् महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव, कुटुम्बीजन जानते हैं। (1974) धर्मचक्र प्रवर्तन, इन्दौर के समोशरण मंदिर रुपये 25,000 का ब्याज दु:खी-दर्दियों के तथा का पंच कल्याणक (1981), भगवान् बाहुबलि पारमार्थिक कार्यों के लिये है। इसमें जातिभेद नहीं प्रतिष्ठापना सहस्राब्दि एवं महामस्तकाभिषेक के अवसर रहेगा। यह राशि घर के ही लोग कमेटी बनाकर खर्च पर जनमंगल महाकलश (1980-81), महावीर ट्रस्ट करें। मुझे किसी का 1 रुपया भी देना नहीं है। का संगठन आदि आयोजनों में उनकी कर्मठता एवं मैंने जीवन में अनीति या अपवित्र प्रकार से धार्मिकता अभिव्यक्त हुई थी। एक रुपया भी घर में नहीं आने दिया। सदा धर्म । उनके निस्पृही जीवन का अनुमान उनके द्वारा और जन्म-कुल तथा कांग्रेस-कुल की प्रतिष्ठा और अपनी मृत्यु (4/9/81) से 2 दिन पूर्व (2/9/81) शोभा का ध्यान रखा। यह मेरे लम्बे जीवन की कहानी लिखित उनकी वसीयत, जो पत्र रूप में है, से लगाया है। मेरी मृत्यु के बाद मेरे नाम पर कोई सामाजिक जा सकता है। वे लिखते हैं- 'मेरे जीवन का संध्याकाल क्रिया काण्ड न किया जावे। है, अत: जीवन का अन्त किसी क्षण, किसी रूप में राष्ट्रहित तथा समाजहित, सबसे स्नेह और ममता भी हो सकता है। मेरी जीवन दृष्टि बाल्यकाल से ही मेरे जीवन के संगीत रहे हैं, इसको गाता हुआ समताभाव सेवा की रही। धन्धे आदि में रुचि स्वल्पतम रही। से इस लोक से विदा होऊँ। यह मेरी भावना है। मेरा केवल गृहस्थ का उत्तदायित्व निभाने के लिये उपादान और ज्ञान इसमें सहायक हो, यही चाह है।' आजीविका उपार्जन करता रहा. जीवन सार्वजनिक किसी भी व्यक्ति द्वारा लिखे गये पत्र सेवा और राजनीति में ही बीता। उसके जीवन-दर्शन की स्पष्ट कर देते हैं यहाँ हम आजीविका उपार्जन भी सवृत्ति और सद्बुद्धि गंगवाल सा0 के अपने पुत्र विमलचंद और निर्मल से किया। लोभ-लालच की भावना मन में नहीं जगी, बाबू के नाम लिखे कुछ पत्र साभार दे रहे हैं। जिनसे धनसंग्रह की लालसा नहीं रही। विचार और आचार गंगवाल सा0 के जीवन-दर्शन को भली-भांति समझा जा की पवित्रता का पूरा ध्यान रखा। कभी लोकमार्ग सकता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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