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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 220 स्वतंत्रता संग्राम में जैन इस सन्दर्भ में डॉ0 जयकुमार 'जलज' का संस्मरण साल पुरानी डायरियाँ निकालते। किसी पृष्ठ पर हिसाब हम यहाँ साभार दे रहे हैं-"मृत्युभोज, दस्सापूजा- लिखा हुआ है, तब का जब वे इन्दौर में पढ़ते थे। निषेध, दहेजप्रथा और पर्दा-प्रथा जैसी बुराइयों के विरुद्ध वे बताते हैं-'दूध कितना सस्ता था, यह एक पैसे की लोग जमकर आक्रोश व्यक्त करते थे और जलेबी खायी थी पेट भर गया था।' जितने क्षण भी पं0 परमेष्ठीदास इस आक्रोश के पक्ष में शास्त्रों के लोग उनके साथ रहते हैं उम्र की दूरियाँ भूले रहते उद्धारण देकर इसे शास्त्र-सम्मत सिद्ध करते थे। वे हैं। पं0 जी छोटे-छोटे पारिवारिक सुख-दु:ख पूछते हैं जैनधर्म की उदारता को रेखांकित करते हुए सम्पूर्ण और उन्हें याद रखते हैं। उनकी आत्मीयता दिखाऊ जैन वाङ्मय को प्रमाणस्वरूप रख देते थे। धीरे-धीरे नहीं, सहज और भीतरी है। रूढ़िवादियों और प्रतिगामियों ने उनके विरुद्ध गिरोह वीर पाठशालावादी और परीक्षाफल-छापू बना लिया। कछेक सभाओं में उन्हें अपमानित करने अखबार नहीं था। उसके संपादक खुद और अदालतों में उनके पक्ष को पराजित करने की स्वतंत्रता-आन्दोलन में सपत्नीक जेल जा चुके थे। वे कोशिशें भी हुई। ये समाचार भी वीर में छपते और गांधीवादी थे। अब भी खद्दर पहनते हैं। उनका पत्र लोग इन्हें पढ़ने के लिए टूट पड़ते। पर इन समाचारों उनके राष्ट्रीय विचारों का वाहक बन गया था। आजादी, का तेवर सनसनीखेज कम ही होता था। देशभक्ति, गांधी, नेहरू और सुभाष पर तथा ढिल्लन, जैन पत्रकारों में पं0 परमेष्ठीदास पहले सहगल, शाहनवाज की गिरफ्तारी के विरोध जैसे विषयों सम्पादक हैं जो लेखकों को निजी पत्र लिखते थे, रचना पर रचनाएँ छपती थीं। राष्ट्रीय समाचारों, निर्णयों और के लिए आग्रह करते थे और रचना-प्राप्ति पर धन्यवाद घटनाओं को प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता था। इसके देते हुए लेखक को अपनी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया भेजते साथ ताजे चित्र भी होते थे; लेकिन वीर राष्ट्रीय पत्र थे। रचना के साथ वे कभी-कभी रचनाकार का परिचय नहीं था। वह मूलतः जैन पत्र ही था। उसके सम्पादक और रचना का अपना आकलन भी छापते थे। भी मूलत: जैन सुधारवाद से सम्बन्धित थे। एक समय सम्पादकीय व्यस्तताओं के बावजूद अपने लेखकों से महात्मा गांधी ने दिगम्बर साधुओं के नग्न विचरण पर एक निजी स्तर पर संवाद स्थापित कर लेना सरल प्रतिकूल टिप्पणी की थी। तब पं0 परमेष्ठीदास उनसे नहीं था। उनके पास न टाइपराइटर था, न टाइपिस्ट, मिले थे और उनके समक्ष नग्नत्व के सम्बन्ध में जैन न निजी सचिव। उन दिनों की अपेक्षा आज थोडी दृष्टि को स्पष्ट किया था। परमेष्ठीदास जी के पास सुविधायें बढ़ गयी हैं, पर, तीर्थंकर के सम्पादक को ये स्मृतियाँ सुरक्षित हैं-'जैसे ही महात्माजी ने छोड़कर अन्य कोई भी जैन सम्पादक अपने लेखकों नग्नत्व-सम्बन्धी इस दृष्टि को समझा आश्चर्य से से निजी रूप में जुड़ा हुआ नहीं है। दिल्ली का उनका उनका मुंह खुल गया, जीभ कुछ बाहर निकल आयी (पं जी का) निवासस्थान वीर के कवियों, लेखकों और उन्होंने सरदार (सरदार बल्लभभाई पटेल) को का अड्डा बना हुआ था। उन्हीं दिनों वे एक बार आवाज दी ताकि वे भी इसे समझ सकें।' बाद में ललितपुर आये थे। सुबह से शाम तक मिलनेवालों गांधीजी ने अपनी प्रतिकूल टिप्पणी वापस ले ली। स्पष्ट का तांता लगा हुआ था। फिर जब वे ललितपुर में ही है कि ऐसा व्यक्ति जैन पत्र के मौलिक उद्देश्यों को आ बसे तब भी मिलने वालों की कमी नहीं रही। त्याग नहीं सकता था। उन्होंने त्यागा भी नहीं; लेकिन किसी को उनसे नयी किताबें मिलती, किसी को पुराने एक संकीर्ण दायरे में भी उन्होंने अपने-आप को कैद चित्र, किसी को कोई बहुत पुरानी चिट्ठी। वे साठेक नहीं होने दिया।" For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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