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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम खण्ड अर्जुन लाल सेठी का नाम दिल्ली बम षड्यन्त्र में होने से वे सरकार की नजरों में पहले ही चढ़े थे, पर ठोस सबूत न होने से पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पा रही थी। उनके गिरफ्तार होते ही हलचल मच गई। मोतीचंद की ओर से केस लड़ने के लिए उनके मामा माणिक चंद ने सोलापूर से कुछ फण्ड इकट्ठा किया। श्री अजित प्रसाद एडवोकेट से सलाह ली गई, अन्त में सेशन कोर्ट ने उन्हे फाँसी की सजा सुना दी। उच्च न्यायालय में अपील की गई पर वहाँ भी सजा को बरकरार रखा गया। पं० विष्णुदत्त शर्मा को 10 वर्ष के कालापानी की सजा मिली। अर्जुन लाल सेठी को यद्यपि सबूत के अभाव में दण्ड नहीं दिया जा सका, पर उन्हें जयपुर लाकर जेल में डाल दिया गया। विधि की विडम्बना देखिये कि जयपुर सरकार ने न तो उन्हें मुक्त ही किया और न ही उनके अपराध की सूचना ही उन्हें दी गई। अन्त में वे बेलूर जेल भेज दिये गये, जहाँ पर उन्होंने दर्शन और पूजा के लिए जैन मूर्ति न दिये जाने के कारण छप्पन दिन का निराहार व्रत किया। मोतीचंद जी ने जेल से अपने अंतिम दिनों में रक्त से एक पत्र* अपने मित्रों के नाम लिखा था। फाँसी से पूर्व जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि 'प्रथम मुझे फाँसी से पूर्व जैन प्रतिमा के दर्शन कराये जायें, द्वितीय मुझे दिगम्बर (नग्न) अवस्था में फाँसी दी जाये।' पर यह जेल के नियमों के प्रतिकूल होने के कारण सम्भव नहीं हुआ। फाँसी से पूर्व उनका वजन 10-11 पौण्ड बढ़ गया था। मोतीचंद जी के एक साथी सोलापूर निवासी श्री बालचंद नानचंद शहा, जो फाँसी के समय वहाँ मौजूद थे, ने उन्हें प्रातः 4 बजे से पूर्व ही भ० पार्श्वनाथ की मूर्ति के दर्शन करा दिये थे। सामायिक और तत्त्वार्थसूत्र का पाठ मोतीचंद जी ने किया और समाधिमरण का पाठ बालचंद जी ने सुनाया था। Who's who of Indian Martyrs, Vol. I, Page 234' के अनुसार फाँसी की तिथि मार्च 1915 है। 1951 में व्याबर से प्रकाशित 'राजस्थानी आजादी के दीवाने' पुस्तक के लेखक श्री हरिप्रसाद अग्रवाल ने मोतीचंद के साहस के सन्दर्भ में लिखा है- 'केवल एक ही घटना से उसके साहस का पता चल जाता है, जब वह क्रान्तिकारी दल का नेतृत्व कर रहा था, उन्हीं दिनों उसका ऑपरेशन हुआ, डॉक्टर की राय थी कि ऑपरेशन क्लोरोफार्म सुंघाकर किया जाये, ताकि पीड़ा न हो। किन्तु वह तो पीड़ा का प्रत्यक्ष अनुभव करने को प्रस्तुत रहता था। उसकी जिद के कारण ऑपरेशन बिना बेहोश किये ही हुआ और उसने उफ तक न की। डॉक्टर भी दाँतो तले उंगली दबाकर रह गया।.........फाँसी की रस्सी का उसने प्रसन्नतापूर्वक आलिंगन किया और मृत्यु के समय तक बलिदान की खुशी में उसका वजन कई पौण्ड बढ़ चुका था।'(पृष्ठ 113-114) श्री मोतीचंद और अर्जुन लाल सेठी के अन्य शिष्यों के सन्दर्भ में प्रसिद्ध विप्लववादी श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल ने 'बन्दी जीवन', द्वितीय भाग, पृष्ठ-137 में लिखा है- 'जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने कर्तव्य की खातिर देश के मंगल के लिए सशस्त्र विप्लव का मार्ग पकड़ा था। महन्त के खून के अपराध में वे भी जब फाँसी की कोठरी में कैद थे, तब उन्होंने भी जीवन-मरण के वैसे ही सन्धिस्थल से अपने विप्लव के यह पत्र मराठी भाषा में है, जो 'सन्मति', दिसम्बर 1952 के अंक में छपा है। (अंक हमारे पास सुरक्षित है) सम्पादकीय नोट के अनुसार यह पत्र उन्हें मोतीचंद के मित्र श्री वाना०शहा से प्राप्त हुआ था। 'हुतात्मा मोतीचंद' के लेखक ब्र० माणिकचंद ज० चवरे ने हमारे नाम अपने पत्र दि0 27.9.95 में भी यही लिखा है कि यह पत्र उन्हें श्री बालचंद नानचंद शहा से पढ़ने को मिला था। दि० 24-1-96 के पत्रानुसार चवरे जी ने यह पत्र स्वयं पढ़ा है, देखा है। पत्र के लिए चवरे जी ने बहुत प्रयत्न किया पर प्राप्त नहीं हो सका है। श्री बालचंद नानचंद शहा और श्री चवरे जी का भी देहावसान हो जाने से पत्र-प्राप्ति प्रायः अशक्य लगती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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