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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५० सूत्रकृतानने अन्वयार्थः-(सव्वेसि) सर्वेषाम् (जीवाणं) जीवानां त्रसस्थावराणाम् (दयहगाए) दयार्थाय-दयां कर्तुम् (सावज्जदोस) सावद्यदोषम् सावद्यारम्भम् (परिवजयंता) परिवर्जयन्तः-त्यजन्तः (तरसंकिणी) तच्छङ्किनः (इसिणो) ऋषयः (नायपुत्ता) ज्ञातपुत्राः (उद्दिट्ठभत्त) उद्दिष्टभक्त :-ौदेशिकाहारम् (परिवज्जयंति) परिवर्जयन्ति-परित्यजन्तीति ॥४०॥ ___टीका-आर्द्रको मुनिः पुनरप्याह-हे भिक्षो ! आईतमतसर्वस्वं श्रूयताम्मोक्षार्थिना मांसभक्षणं तु कदापि न कर्तव्यम् । किंबहुना उद्देशकाहारोऽपि हातव्य 'सव्वेसि जीवाणं' इत्यादि ! शब्दार्थ-'सम्वेसिं-सर्वेषां समस्त 'जीवाणं-जीवाला' त्रस और स्थावर जीवों के ऊपर 'दयट्टयाए-दयार्थाय दया करने के लिए 'साव. दोसं-सावद्यदोषं' सावध दोष का 'परिवजयंता-परिवर्जयन्तः' त्याग करने वाले 'तस्संकिणो-तत् शडिन' तथा सावध दोष की आशंका करनेवाले 'उलिणो-ऋषयः' 'नायपुत्ता-ज्ञातपुत्राः' ज्ञातपुत्रके अनुयायी उद्दिभत्तं-उद्दिष्ट भक्तम्' औद्देशिक आहार का 'परिवज यति-परिवर्जयन्ति' परित्याग करते हैं ॥४०॥ अन्वयार्थ-जगत् में निवास करने वाले समस्त त्रस और स्थावर जीवों की दया के लिए सावद्य दोष का परित्याग करने वाले तथा सावध की अशंका करने वाले ज्ञातपुत्र के अनुयायी संयमी मुनि औदेशिक भाहार का परित्याग करते हैं।॥४०॥ टीकार्थ-आईक मुनि फिर कहते हैं-आहतमत के सर्वस्व को सुनो-मोक्षार्थी को मांस का भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए । अधिक 'सव्वेसि जीवाण' त्या शहाथ-'सव्वेसिं-सर्वेषां' सघा ‘जीवाणं-जीवाना' ससने स्था१२ ७। ५२ 'दयटूयाए-दयार्थाय' या ४२वा माटे 'सावज्जदोसं-सावद्यदोष" साध सपना 'परिवज्जयंता-परिवर्जयन्त:' त्याग ४२वावा तस्संकिणो-तत् शकिनः' तया सावध होपनी । ४२११।'उसिणो-ऋषयः' *षि मेवा 'नायणुत्ता सातपुत्राः' शातपुत्रना अनुयायी. 'उहिट्ठभत्त-उहिष्टभतम्' सौदेशि: माहारने। 'परिवज्जयंति-परिवर्जयन्नि' त्याग रे छ. ॥१०४०॥ અન્વયાર્થ-જગમાં વસતા સઘળા ત્રસ અને સ્થાવર જીવેની દયા માટે સાવધ દેષને ત્યાગ કરવાવાળા તથા સાવઘની શંકા કરવાવાળા જ્ઞાતપુત્રના અનુયાયી સંયમી મુનિ દેશિક આહારને પરિત્યાગ કરે છે. ૧૪૦ ટીકાર્ય આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે–આહંત મતના સિદ્ધાંતને સાંભળે મોક્ષની ઈચછાવાળા આત્માઓએ કદાપિ માંસનું ભક્ષણ કરવું ન જોઈએ, For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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