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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आद्रकमुने!शालकस्य संवादन. ६१३ अन्वयार्थः--(आरं भगं चेव) आरम्भकम्-माणातिपातादिलक्षणम् (परिग्गहं च) धनधान्यादिलक्षणम् (अविउस्सिय) अव्युत्सृज्यापरित्यज्य (गिस्तिय) नि:श्रिताः-बद्धाः (आयदंडा) आत्मदण्डा ये वणि नः (तेसिं च) तेषां च (से उदर) स उदयः-धनलाभादिरूपः (जं वयासी) यमवादी: (म चउरंतणंताय दुहाय) स चतुरन्तानन्ताय दुःखाय (णेह) नेह वणिजां लाभः संसारदुःखाय न तु सुखाय, तीर्थकरस्योदयश्च केवलज्ञानप्राप्तिकक्षणो न तथा किन सुखायेति ॥२३॥ .. होते हैं 'आयदंडा-आत्मदंडाः' वे अपनी अत्माको दण्डित करने वाले हैं, तुमने 'तेसिं-तेषां' उनका जबयासी-यमवादी' जो उदय कहा है, 'से उदए-स उदयः' यह उदय 'चाउरंतणताय दुहाय-चतुरन्तान. न्ताय दुःखाय' चतुर्गतिरूप और अनंत दुःखका कारण होता है, 'णेह -नेह' वह उदय कभी नहीं भी होता है, अर्थात् ऐकान्तिक नहीं है, तीर्थकर भगवान का उदय केवल ज्ञान प्राप्तिरूप है, वह व्यापारी के उदयके तुल्य न होकर केवल प्लुख का ही कारण होता है ॥२३॥ .. अन्वयार्थ --प्रागातिपात आदि आरंभ तथा धन धान्य आदि परिग्रह को न त्याग कर के व्यापारी उस में आसक्त होते हैं। वे अपनी आत्मा को दण्डिन करने वाले हैं । तुमने उनका जो उदय कहा है, वह चतुर्गतिक एवं अनन्त दुःख का कारण होता है । वह उदय कभी नहीं भी होता है अर्थात् एकान्तिक नहीं है । तीर्थकर भगवान् का उदय केवलज्ञानप्राप्ति रूप है। वह व्यापारी के उदय के समान न होकर सुख का कारण ही होता है ॥२३॥ मात्मदण्डाः' तसा पोताना आत्मान ६ पापामा छे. तमे वेसिं-वेषी' 'जं क्यासी-यमवादीत्' २ लक्ष्य ४ छ. 'से उनए- उदयः' ते हय 'चाउरत. गंतोय दुहाय-चतुरन्तानन्ताय दुःखाय' यतुमति ३५ अने मनतमन ३५ 34 छ. 'णेह-नेह' ते 684 यारेन ५५ था य अर्थात् मन्ति હેતું નથી. તીર્થકર ભગવાનને ઉદય કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્તિ રૂપ છે. તે વ્યાપારીના ઉદય પ્રમાણે ન થતાં કેવળ સુખના જ કારણ રૂપ હોય છે. ર૩ અન્વયાર્થ–પ્રાણાતિપાત વિગેરે આરંભ તથા ધન ધાન્ય વિગેરે પરિ બહ ત્યાગ ન કરવાથી વ્યાપારી લેક તેમાં આસક્ત રહે છે. તેઓ પિતાના આત્માને દંડિત કરવા વાળા હોય છે. તમે તેમને જે ઉદય કહ્યો છે. તે ચાતર્ગતિક અને અનંત દુઃખના કારણરૂપ હોય છે. તે ઉદય કયારેક ન પણ હાય અર્થાત્ કાયમ થાય જ તેમ એકાતિક નથી. તીર્થંકર ભગવાનને ઉદય કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્તિ રૂપ છે. તે વ્યાપારીના ઉદય જે હેતે નથી પણ સુખના કારણ રૂપ જ હોય છે. પરવા For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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