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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. अ. अ. ६ आर्द्रकमुनेगर्गोशालकस्य संवादनि० ६११ अन्वयार्थ:-आकः पुनरपि गोशालकं कथयति-(वणिया) वणिजः (वित्तसिणो) वित्तैषिणो धनाभिलाषिणो भान्नि, तथा-(मेहुणसंपगाढा) मैथुनसंप्रगाढा-मैथुनेऽत्यन्तासक्तमानसा भवन्ति । (ते भोयणट्ठा वयंति) ते भोजनार्थ व्रजन्ति-वणिजो भोजनोपलब्ध्य इतस्तनो भ्रमन्ति, तु-मोऽस्मादेव कारणा (कामेसु) कामेषु (अज्झोववन्ना) अध्युपपन्नाः-कामाऽऽसक्ताः (प्रेमरसेसु) प्रेमरसेषु (गिद्धा) गृद्धाः (अणारिया) अनार्यास्ते इति (वयं) वयम्-कथयामः। तान् वणिवृत्तीनिति धनिः । तस्मिन्ननेकवारं क्रयविक्रयपचनपाचनादिके तथा परिग्रहे धनधान्य द्विपदचतुष्पदादिके नि-निश्चयेन श्रिताः बद्धाः निःश्रिता वणिजो भवन्तीति ॥२२॥ टीका-मुगमा ॥२२॥ 'वित्तेसिणो मेहुणसंपगाहा' इत्यादि । शब्दार्थ-फिर से आईक मुनि गोशालक से कहते हैं-'वणियावणिजः' व्यापारी जन 'वित्तसिणो-वितैषिणः' धन के अभिलाषी होते हैं। तथा 'मेहुणसंपगाढा-मैथुनसंप्रगाढाः' मैथुन में आसक्त होते है 'ते भोयणट्ठा वयंति-ते भोजनार्थ व्रजन्ति' वे भोजन के लिए इतस्ततः भ्रमण करते हैं 'कामेसु-कामेषु जो कामभोगों में 'अन्झोव. वन्ना-अध्युपपन्ना' आसक्त होते हैं, तथा 'पेमरसेसु-प्रेमरसेषु' स्नेहरस में 'गिद्धा-गृद्धाः' आसक्त होते हैं, उनको 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य है ऐसा 'वयंतु-वयन्तु हम कहते हैं ॥२२॥ ____ अन्वयार्थ-आद्रक गोशालक से फिर करते हैं-व्यापारी जन धन के अभिलाषी होते हैं, एवं मैथुन में भी आसक्त होते हैं; वे भोजन वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा' या शहाथ-३ मा भुनि ४ थे.-'वणिया-वणिजः' व्यापारियो 'वित्तेसिणो-वित्तैषिणः धन मा २छ। पाय छे. तया 'मेहुणसंपगाढा-मैथुनसंप्रगाढाः' भैथुनमा आमति वाणा हाय छे. 'ते भोयणद्वा वयंति. ते भोजनार्थ ब्रजन्ति' तमा न भाटे ४ भाभ:तेम म . 'कामेसु कामेषु' २। मलामीमा 'अझोक्वन्ना-अध्युपपन्नाः' मासात डाय छ, तथा 'पेमरसेसु -प्रेमरसेषु' २७ २सभा 'गिद्धा-गृद्धाः' भासहित राय छे. त्याने 'अणारिया-अनार्या.' मनाय तेम 'वयं तु-वयन्तु' अमे तोही छीस. १२२॥ અન્યથાર્થ આદ્રક ગોશાલકને ફરીથી કહે છે કે-વ્યાપારી લેક ધનની ઈચ્છા વાળા હોય છે. તથા મૈથુનમાં આસક્ત હૈય છે. અને જન માટે For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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