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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमग्रारंबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० मूलम्-जे यावि बीयोदंगभोइभिक्खू , भिक्खं विहिं जायंति जीवियट्री। ते णाइसंजोगमवि पहाय कायोवगाणंतकरी भवंति।१०। छाया-- ये चापि बीजोदकमोजिमिक्षयो, भिक्षाविधि यान्ति जीवितार्थिनः । ते ज्ञातिसंयोगमपि प्रहाय, कायोपगा नान्तकरा भवन्ति ॥१.० तो करते हैं । जब सचित्त जल और स्त्री का सेवन दोनों ही करते हैं तो साधु और हाथ में अन्तर ही क्या रहा? ऐसा मानने पर तो सब गृहस्थ भी माधु ही कहलाएँगे। अतएव आपने साधु की जो परिभाषा कहती है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि वह गृहस्थ में भी घटित होती ॥९॥टीका सरल ही है ॥९॥ 'जे याचि बीयोदाभोइभिक्खू इत्यादि । शब्दार्थ---आईक मुनि पुनः कहते हैं-जे यावि-ये चापि' जो 'भिक्खू-भिक्षुः' भिक्षु होकर भी 'बीयोदगभोह-धीजोदकमोजिना सचित्त बीज एवं सचित्त जलका सेवन करते हैं, और 'जीवियद्योजीवितार्थिनः' जीवननिर्वाह के लिए 'भिक्खं विहिं जायंति-भिक्षाविधियान्ति' भिक्षावृत्ति करते हैं ते णाइसंजोगमवि पहाय-ते ज्ञाति संयोगमपि प्रहाय' वे अपने ज्ञाति जनों बन्धु, बान्धवों के संपर्क को त्यागकरके भी 'कायोवगा-कायोपगाः' अपनी कायाका ही पोषण करने માની લેવામાં ન આવે? તેઓ પણ સચિત્ત જલ સ્વી વિગેરેનું સેવન કરે છે. જે સાધુ અને ગૃહસ્થ અને સચિત્ત જલ અને સ્ત્રિોનું સેવન કરતા હોય તે સાધુ અને ગૃહસ્થમાં શું ફેર છે? જો એમ જ માનવામાં આવે તે સઘળા ગૃહસ્થો પણ સાધુ જ કહેવાશે. તેથી જ આપે સાધુની જે પરિભાષા કહી છે તે બરાબર નથી. કેમકે તે ગૃહસ્થોમાં પણ ઘટિત થાય છે. પાક ટીકાર્થ સરલ જ છે. તેથી અલગ બતાવેલ નથી. 'जे यावि बोयोदगभोइभिक्खू त्या शहाथ-इशयी माद्र मुनि ४ छे-'जे यावि-ये चापि'२ भिखू भिक्षुः' मा ५२ ५५ 'बीयोदगभोई-बीजोदकभोजिनः' सथित भीम सथित पाषानु सेवन ४रे छ, भने 'जीवियद्दी-जीवितार्थिन' पनिalk ४२०॥ भाट 'भिक्खं विहं जायंति-भिक्षाविधि' भिक्षावृत्ति दे ति गाह संजोगमवि पहाय-ते ज्ञातिसंयोगमपि प्रहाय' तेसो त तिanata माधवाना सपना त्या परीने ५४ 'कायोवगा-कायोपगा। पाताना शरीरनु सु० ७४ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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