SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 589
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ASC www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसुत्रे अन्वयार्थः -- आर्द्रकमुनिः कथयति - हे गोशालक ! (लवावसक्की) लवावच्वकी-पातिकर्मणो दूरवर्ती (समणे) श्रमण स्वपचरणशीलः भगवान् महावीरः साधूनुद्दिश्य (पंचमहन्त्रप) पञ्चमहाव्रतान् प्राणातिपातविरमणादीन् (पंच अणुन्नए) पञ्चानुवतान् लघुमाणातिपातविरमणादीन् श्रावकोदेशेन (देव) सथैव (पंचासदसंबरे य) पञ्चास्रवसंवरांश' पंञ्चास्त्रवान् प्राणातिपातादीन् कर्मणः प्रदेशद्वारभूतान संवरांच-दशम कारकसंयमांथ (पुन्ने सामणिमि) पूर्णे श्रामण्ये - संयमे सः (विरह) विरर्ति-साधकर्मणो निवृत्तिम् च शब्दात् जीवाजीव पुण्यपापवन्धनिर्जरामोक्षाणं चोपदिशतीति (तिमि ) इत्यहं व्रीमि - कथयामीति ॥ ६ ॥ टीका- आई कनिः कथयति - 'लवावसकी सरणे' लावष्वष्की श्रमण:लत्रः - कर्म तस्मादवकी - आ-दूरम् सर्पगशील इति वावयष्की, श्राम्यतीतिबतों का तथा पंच अणुत्रए - पञ्च अणुव्रतान्' पांच अणुव्रत 'तहेवतथैव' तथा 'पंचासवे - पश्चास्त्रयः' पांच आस्त्रयों का 'संवरे य-संवरां ' सतरह प्रकार के संवरों का 'पुन्ने सामणियंमि-पूर्णे श्रावये' पूर्ण संघम में वर्तते हुए सावद्य कर्म की निवृत्ति का और पुण्य पाप बन्ध निर्जरा एवं • मोक्ष का उपदेश करते हैं । 'सिबेमि इति ब्रषीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ||६|| अन्वयार्थ - आवक मुनि गोशालक से कह रहे हैं - हे गोशालक ! भगवान् महावीर घातिक कर्मों से दूर हो चुके हैं- हे तपश्चरणशील हैं वे पूर्ण श्रमण्य संयम में वर्तते हुए साधुओं के लिए प्राणातिशतविरमण आदि पांच महाव्रतों का, श्रावकों के लिए पांच अनों का तथा पांच आस्रवों का, सत्तरह प्रकार के संयम का, fara का अर्थात् सावध कर्मों की निवृत्ति का और पुण्य, पाप, बन्ध, निर्जरा एवं मोक्ष का उपदेश करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ ॥ ६ ॥ तथा 'प'च अणुव्व - पञ्च अणुश्रतान्' पांय आयुक्त 'तहेव - तथैव' तथा 'पचासवे - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्रवः' पांय भासवानुं 'संवरेय-संवरध' सत्तर अमारना सवनु' 'पुन्नेसोमणियमि- पूर्ण श्रामण्ये' पू' श्रामस्यमां रखीने 'विरई - विरतिः' अर्थात् सावध ક્રમની નિવૃત્તિને અને પુણ્ય, પાપ, અન્ય, નિરા અને મેક્ષના ઉપદેશ આપે છે. એ પ્રમાણે હું કહુ. છુ. ગાા અન્વયાય—દ્ર કમુનિ ગે શાલકને કહે છે કે—હે ગોશાલક ! ભગ વાત્ મહાવીર ઘાતિયા કર્મોથી દૂર થઈ ચૂક્યા છે. તપશ્ચરણ શીલ છે. તેઓ પૂર્ણ શ્રામણ્ય સત્યમમાં વતા થકા સાધુએ માટે પ્રાણાતિપાત વિરમણુ વિગેરે પાંચ મહાવ્રતાના અને શ્રાવક માટે પાંચ અણુવ્રતાના તથા પાંચ આસવાના સત્તર' પ્રકારના સંયમના વિરતિ અર્થાત્ સાવધ કર્મોની નિવૃત્તિના અને પુછ્યું, अध निशाने मोक्षना उपदेश करे छे. रोभ हु हु छ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy