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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी रीका द्वि. श्रु. अ.५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५०५ जीव इति । तथा-वेदान्तिमतमपि न स चीनम् -यत:-यतः स्याऽऽत्मपभवस्वे जगतो विचित्रता न स्यात्, एचमेक एन यद्याऽऽ पा भवेत्तदा कश्चिद्धदः कश्चिनमुक्ता-कश्चित्सुखी-कश्चिदुःखी-इत्यादि व्यवस्था सर्वलोके सर्वाऽनुभवसिद्धा न व्यवस्थिता स्यात् । अतो जीना अजीवाश्च सन्तीति स्वीकर्तव्यमेव ॥१३॥ - मुहम्-स्थि धम्म अधम्मे वा णेवं सन्नं णिवेसए । अस्थिं धम्म अधम्मे वा एवं सन्नं णिसए ॥१४॥ छाया-नास्ति धर्मोऽधर्मों वा नै संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति धर्मोऽधर्मों वेत्येवं संज्ञो निवेशयेत् ॥१४॥ इसी प्रकार वेदान्तियों का मन भी समीचीन नहीं है। क्यों कि समस्त पदार्थ यदि एक ही आत्मा से उत्पन्न हुए होते तो उनमें परस्पर विचित्रतान होती इसके सिवाय यदि आस्मा एक ही होता तो कोई बद्ध होता है, कोई मुक्त, कोई सुखी और कोई दुःखी, इत्यादि व्यवस्था, जो सभी के अनुभव से सिद्ध है, वह न होती। अतएव जीवों और अजीवोंदोनों का ही अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए । यही युक्तिसंगत है ॥१३॥ 'णत्थि धम्मे' इत्यादि। शब्दार्थ-'णस्थि धम्मे अधम्मे वा-नास्ति धोऽधर्मो वा' धर्म नहीं है और अधर्म नहीं है 'णेवं सन्नं निवेत्तए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की संज्ञी-बुद्धि धारण न करे किन्तु 'अस्थि धम्मे अधम्मे वा-भस्ति धर्मोऽधर्मों वा' धर्म है और अधर्म भी है ‘एवं सन्नं निवेसए'-एवं संज्ञा निवेशयेत्' ऐसी संज्ञा-बुद्धि धारण करे। ॥१४॥ આજ પ્રમાણે વેદાતિનો મત પણ બરોબર નથી. કેમકે–સઘળા પદાર્થો જે એક આત્માથી જ ઉત્પન્ન થયેલા છે તે તેએામાં પરસ્પર વિચિત્ર પણું ન થાત આ શિવાય જે આત્મા એક જ હોત તે કઈ બદ્ધ હોય છે, તેમે કઈ મુક્ત હોય છે. કોઈ સુખી હોય છે, તે કઈ દુઃખી હોય છે. વિગેરે વ્યવસ્થા કે જે દરેકના અનુભવથી સિદ્ધ છે, તે હેત નહીં. તેથી જ છે અને અજી-બન્નેનું અસ્તિત્વ સ્વીકારવું જોઈએ એજ યુક્તિ સંગત છે. ૧૩ 'णत्थि धम्मे' त्या शहाथ--'णस्थि धम्मे अधम्मे वा-नास्ति धर्मोऽअधर्मो वा' धर्म नथी,, अन अपम ५५ नथी. 'णेवं सन्न निवसए-नै संज्ञां निवेशयेत्' मावा . २नी संज्ञा (भुद्धि) था२५ ४२वी नही ५२ 'अस्थि धम्मे अधम्मे वा-अस्ति धोऽधर्मो वाघ भने म छ. 'एवं सन्न निवेसए-एवं संज्ञा निवेशयेत्' से प्रभाएनी संज्ञा (मुद्धि) धारण ४२वी ४. ॥१४॥ स० ६४ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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