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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे अग्निदीहिं करोति, अन्येनापि तथा कारयति, तथा कुर्वतं परं समनुजानाति, इंति स पापिष्वपि पापिष्ठतर इति दर्शयति । 'तं जहा' तद्यथा - 'गाइावण वागांडावर ताण वा' गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा 'उसालाओ' वा जान ग्रहमसालाओ वा' उष्ट्रशाला वा यावद्वर्दमशाला वा 'कंटकबोंदियाहिं परिपेहिता' कष्टकशाखाभिः परिपिधाय 'सयमेत्र' स्वयमेव 'अगणिकारणं' अग्निकार्यन 'झमे " धमति, अन्येन वा ध्मापयति, धमन्तमन्यं वा पुनः 'समणुजाणई' सम - सुजानाति - अनुमोदते 'से एगइयो णो वितिछि' स एकतयो महापापी स्वकर्मफलं न विमर्शति न विचारयति 'तं जहा' तद्यथा- 'गाहावईण वा गाहाबहपुत्ताण बाजा' गाथापतीनां वा-गावांपतिपुत्राणां वा यावत् 'मोतियं वा' मौक्तिकं बा- मौक्तिकमणिकाञ्चनादिकम् 'सयमेव अवहरइ जान' स्वयमेव अपहरति यावद, अन्येनापि अपहारयति, अपहरन्तमन्यम् 'समणुजाणः समनुजानाति - अनुमोदते 'से एगओणो वितिछि' स एकतयः कोऽपि हीनमपि न किमपि विचारयति देता है और ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। वह पापियों में बहुत बडा पापी है, यह दिखलाते हैं-गाथापति या गोधापति के पुत्रों की उष्ट्रशाला यावत् गर्दभ शाला को कंटकशाखा आदि से घेर कर उसे स्वयं ही आग से जला देता है दूसरे से जलवा देता है, और जलाने वाले का अनुमोदन करता है । कोई पापी अपने कर्म के फल का विचार किये बिना ही गाथापतियों या गाथापति पुत्रों के मणिकांचन मोती आदि का स्वयं अपहरण करता है दूसरे से अपहरण करवाना है और अपहरण करने वाले का अनुमोदन करता है। कोई मतिहीन कुछ भी विचार न करके अकारण ही श्रमणों या अनुभानरे छे. ते पाथीयो भेट पायी गाय ते नावे छे.ગાથાપતિ અથવા ગાથાપતિના પુત્રની ઉન્દ્રશાળા યાત્રતું ગભશાળાને કાટા વિગેરેથી ઘેરીને તેને સ્વય' પાતે જ આગથી બાળે છે. અથવા ખીજા પાસે મળાવે છે. અને માળવાવાળાનુ અનુમાદન કરે છે. તે માટે પાપી કહેવાય છે. કાઈ પાપી પોતાના કમના ફળના વિચાર કર્યા વિના જ ગાથાપતિ અથવા ગાથા પતિના પુત્રોના મશી, કાંચન-સેતુ મેતી, વિગેરેનું સ્વય. અપહરણુ (चोरी) हरे छे. अथवा जीलनी पांसे, थोरी उरांवे छे. अथवा अपड़र ફરવાવાળાનું અનુમાન કરે છે, તે મેટા પાપી કહેવાય છે, For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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