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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् तन्मार्गे तस्याऽभिमुखो भवति, 'अदुवा संधिच्छे यए' अथवा सन्धिच्छेदको भवति-धनमाहर्तुं तद्गृहभित्तिकादौ छिद्रं संपाद्य तेन यथागृहस्थित धनमपहरति 'अदुवा गंठिच्छेदए' अथवा ग्रन्थिच्छेदकः-ग्रन्थिच्छेदनं कृत्वा धनं गृह्णाति (गिरहकट्टा-पाकिटमार) शब्देन प्रसिद्धः 'अदुवा उरमिए' अथवा औरभ्रिको मेषादिकं चारयति, ततो वधकाय दत्वा धनमर्जयति, 'अदुवा सोपरिए' अथवा शौकरिकः-अथवा वराहमेव चारयति धनलाभाय, 'अदुवा वागुरिए' अथवा वागुरिकः वागुरां-जालं निर्माय क्षिप्त्वा च मृगादिकं बध्नाति आजीविकायै 'अदुवा साउणिए' अथवा शाकुनिका-पक्षिघातकः, कवि मार्गमावृत्य-आततस्य जालं पक्षिग एव ग्राहको भाति, 'अदुवा मछिए' अथवा कश्चिन्मात्स्यिको भवति-मत्स्योद्योगेन धनमर्जयति । 'अदुवा गोघायए' अथवा गोधातकः कश्चिद्भवति, 'अदुवा गोवालए' अथवा गोपालकः कश्चिद्भवतिगोपालनमेव करोति-ततः वधकाय दत्या धनमर्जपति, 'अदुवा सोवणिए' अथवा शौवनिकः श्वानं पालयति तस्करजन्त्वादि वधाय 'अदुवा सोवणियंतिए' अथवा श्वभिरन्तको भवति, कश्चित् श्वानं पुरस्कृत्य पाण्यन्तरस्य हिंसा मनुवर्ततेकरने के लिए मार्ग में उसके सामने जाता है। कोई सेंध लगाता है -दीवार में छेद करके उसमें घुस कर धन चुरा लेता है। कोई अन्थिच्छेद करता है-जेष कट होता है। कोई भेडे चराता है और घातकी-हत्यारा को वेचार धनोपार्जन करता है, कोई धन के लिए शूकरों को धराता है, कोई जाल बना कर मृग आदि को फंपाता है, कोई पक्षियों का घान करता है, कोई जाल फैला कर पक्षियों को पकड़ता है, कोई मछलियां मार कर धन कमाता है, कोई गायों का घात करता है, कोई गायों को पालन करके घातकी आदि को बेन कर धनोपार्जन करता है. कोई तस्कर (चोर) शदि के वध के लिए कुत्ता पालतां है अथवा कुत्ते को आगे करके-छुछ कार कर-किसी प्राणिकी ઘરમાં પ્રવેશ કરીને ચોરી કરે છે. કોઈ ગ્રંથી છેદન કરે છે. અર્થાત ગજા કાપે છે. કેઈ બકરા ચરાવે છે, અને ખાટકી-હત્યારાને તે વેચીને ધન મેળવે છે, કઈ ધન મેળવવા માટે શું રે - ભુડે ને ચરાવે છે, કોઈ જાળ બનાવીને મૃગ વિગેરેને ફસાવે છે. કેઈ પક્ષિાની હિંસા કરે છે. કોઈ માછલી મારીને ધન કમાય છે. કઈ ગાની હિંસા કરે છે. કેઈ ગાન પાલન કરીને ખાટકી-વિગેરેને વેચીને ધન મેળવે છે, કોઈ ચારના વધ માટે કુતર પાળે છે, અથવા કુતરાઓને આગળ રાખીને-ઉશ્કેરીને કંઈ પ્રાણીની सू० ३० For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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