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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् वा वेत्तेग वा' जोत्रेग वा वेत्रेण वा 'णेत्तेग वा' नोदकेन वा प्रेरकदण्डेन 'तयाइ वा' त्वचा वा-त्वनिर्मितेन 'कण्णेग वा' कशया वा छेपाए वा' छेदकेन वा-परश्यादिना 'लयाए वा' लतया वा 'अन्न रेग वा अन्यतरेण वा 'दवरएग वा' दवरकेण वा 'पासाइ उद्दालिता भवई' पार्थानि उदालयिता भवति, अर्थात्-कशादिभिः पावस्थं चर्म उत्पाट यति 'दंडेग वा-अट्ठीण वा-मुट्ठीण वालेलूण वा-कपालेग वा-कायं आउद्विता भाई दण्डेन वा-यष्टयादिना अस्थमा चा-मुष्टिना वा-लेष्टुना वा (लोष्ट्रेण) वा-कपाले न वा-घटावयवेन वा कायंशरीरम्-आकुट्टयिता भवति-हिनस्ति । दण्डादिना प्रहार्य तदीयशरीरं शिथिल. यति। तहप्पगारे पुरिस जाए' तथाप्रकारे-ईदृशभोषणकर्मकारिपुरुषजाते 'संवसमाणे संसति गृहे तदीय पुत्रकलत्रभ्रातमागिन्यादयः 'दुम्मणा भवंति' दुर्मनसो भवन्ति ‘पयसमा प्रवपति-गृहाद्विनिर्गते सति तदीयबान्धवाः 'सुमणा भवंति' सुमनसः-प्रसन्ना भवन्ति' हिमाऽये कमलानवत् इति। 'तहप्पगारे पुरिसनाए' तथाप्रकारो दुष्कर्षा पुरुष नातः । ‘दंडपासी' दण्डपार्थी-दण्डः पाछे यस्य स तथा, स्वल्पाभराधेऽपि अधिकदण्डदायकः 'दंडगुरुए' दण्डगुरुका है, जोत से, वेत से, आर लगे डंडे से, चमड़े के चावुक से, फरसा से, लता से, किसी प्रकार के रास्ते से मार-मार कर अपराधी के पार्श्व भाग की चमड़ी उधेड़ देता है या लाठी से, हटडी से, घूसे से, ढेलेसे, कपाल से शरीर पर आघात पहंचाता है। डंडे मार-मार कर शरीर को ढीला कर देता है। ऐसा पुरुष जब घर के भीतर रहता है तो उसके माता, पिता, भाई, भागिनी आदि दुःखी और उदास रहते हैं और जब वह घर से बाहर निकल जाता है तो प्रसन्न होते हैं, हिम के नष्ट हो जाने पर कमलवन के समान खिल उठते हैं। ऐसा पुरुष घगल में डंडा रखता है-थोडे से अपराध का अधिक दंड देता है, તેમાં પાડે છે, જેનરથી, વૈતથી, આર લગાવેલા ઠંડાથી, ચામડાના ચાબુકથી, ફરસાથી, લતાથી કઈ પણ પ્રકારથી મારી મારીને અપરાધીના પડખાના ભાગની ચામડી ઉખેડી નાખે છે, અથવા લાકડીથી, હાડકાધી, ઘુસ્તાથી, ઢેખલાથી, કપાળથી, શરીર પર પડા પહોંચાડે છે. કંડ મારી મારીને શરીરને ઢીલું કરી દે છે. એવો પુરૂષ જ્યારે ઘરની અંદર રહે છે, તે તેના માતા, પિતા, ભાઈ બહેન વિગેરે દુઃખી અને ઉદાસ રહે છે, અને જયારે તે ઘરની બહાર નીકળી જાય છે, ત્યારે તેઓ સઘળા પ્રસન્ન થાય છે. જેમ હિમના નાશ થવાથી કમળ વન ખીલી ઉઠે છે, તેમ તેઓ ખુશી For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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